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________________ २४ / श्रमण महावीर महावीर को मारने दौड़ा, वैसे ही घोड़ों के पैरों की आहट ने उसे चौंका दिया। महाराज नंदिवर्द्धन उस दृश्य को देख स्तब्ध रह गए। महाराज ने ग्वाले को महावीर का परिचय दिया। वह अपनी मूर्खता पर पछताता हुआ वापस चला गया। महावीर की ध्यान प्रतिमा संपन्न हुई। महाराज नंदिवर्द्धन सामने आकर खड़े हो गए। बोले, 'भंते! आप अकेले हैं। जंगल में ध्यान करते हैं। आज जैसी घटना और भी घटित हो सकती है। आप मुझे अनुमति दें, मैं अपने सैनिकों को आपकी सेवा में रखू । वे आप पर आने वाले कष्टों का निवारण करते रहेंगे।' भगवान् गंभीर स्वर में बोले, 'नंदिवर्द्धन ! ऐसा नहीं हो सकता। स्वतंत्रता की साधना करने वाला अपने आत्मबल के सहारे ही आगे बढ़ता है। वह दूसरों के सहारे आगे बढ़ने की बात सोच ही नहीं सकता।२ । यह घटना स्वतंत्रता का पहला सोपान है। इसके दोनों पार्यों में स्वावलंबन और पुरुषार्थ प्रतिध्वनित हो रहे हैं। स्वावलंबन और पुरुषार्थ - ये दोनों अस्तित्व के चक्षु हैं । ये वे चक्षु हैं, जो भीतर और बाहर – दोनों ओर समान रूप से देखते हैं। मनुष्य अस्तित्व की शृंखला की एक कड़ी है। पुरुषार्थ उसकी प्रकृति है। जिसका अस्तित्व है, वह कोई भी वस्तु क्रियाशून्य नहीं हो सकती। इस सत्य को तर्कशास्त्रीय भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है - अस्तित्व का लक्षण है क्रियाकारित्व। जिसमें क्रियाकारित्व नहीं होता, वह आकाशकुसुम की भांति असत् होता है, मनुष्य सत् है, इसलिए पुरुषार्थ उसके पैर और स्वावलंबन उसकी गति है। १. आवश्यकचूर्णि,पूर्वभाग, पृ० २६८- २७०। २. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २७०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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