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________________ असंग्रह का वातायन : अभय का उच्छ्वास / २७ का कुलपति भगवान् के पिता सिद्धार्थ का मित्र था। वह भगवान् को पहचानता था। एक तापस ने भगवान् को आश्रम में आते हुए देखा। उसने कुलपति को सूचना दी। वह अपने साधना-कुटीर से बाहर आया। उसने महावीर को पहचान लिया। वह आतिथ्य के लिए सामने गया। दोनों ने एक-दूसरे का अभिवादन किया। कुलपति के निवेदन पर महावीर एक दिन वहीं रहे। दूसरे दिन वे आगे के लिए प्रस्थान करने लगे। कुलपति ने कहा - 'मुनिवर! यह आश्रम आपका ही है। आप इसमें नि:संकोच भाव से रहें। अभी आप प्रस्थान के लिए प्रस्तुत हैं । मैं आपकी इच्छा में विघ्न उपस्थित नहीं करूंगा। मेरी हार्दिक इच्छा है कि आप इस वर्ष का वर्षावास यहीं बिताएं।' महावीर वहां से चले। कई महीनों तक आसपास के प्रदेश में घूमें। आश्रम से बंधकर गए थे, अत: वर्षावास के प्रारम्भ में पुनः वहीं लौट आए। इसे आश्चर्य ही मानना होगा कि अपनी धुन में अलख जगाने वाला एक स्वतंत्रता-प्रेमी साधक कुलपति के बंधन में बंध गया। कुलपति ने महावीर को एक झोंपड़ी दे दी। वे वहां रहने लगे। उनके सामने एक ही कार्य था और वह था ध्यान - भीतर की गहराइयों में गोते लगाना और संस्कारों की परतों के नीचे दबे हुए अस्तित्व का साक्षात्कार करना । वे अपनी झोंपड़ी की ओर भी ध्यान नहीं देते तब आवासीय झोंपड़ी की ओर ध्यान देने की उनसे आशा ही कैसे की जा सकती थी? महावीर की यह उदासीनता झोंपड़ी के अधिकारी तापस को खलने लगी। उसने महावीर से अनुरोध किया, 'आप झोंपड़ी की सार-संभाल किया करें।' समय का चरण आगे बढ़ा। बादल आकाश में घिर गए। रिमझिम-रिमझिम बूंदे गिरने लगीं। ग्रीष्म ने अपना मुंह वर्षा के अवगुंठन से ढक लिया। उसके द्वारा पुरस्कृत ताप शीत में बदल गया। भूमि के कण-कण में रोमांच हो आया। उसका हरित परिधान बरबस आंखों को अपनी ओर खींचने लगा। गाएं अरण्य में चरने को आने लगीं। घास अभी बढ़ी नहीं थी। भूमि अभी अंकुरित ही हुइ थी। क्षुधातुर गाएं घास की टोह में आश्रम की झोंपड़ी तक पहुंच जाती थीं। अन्य सभी तापस अपनी-अपनी झोंपड़ी की रक्षा करते थे। गाएं उस झोंपड़ी पर लपकतीं, जिसमें महावीर ठहरे हुए थे। वे उसके छप्पर की घास खा जाती हैं, तापस ने कुलपति से निवेदन किया -- मेरी झोंपडी के छप्पर की घास गाएँ खा जाती हैं । मेरे अनुरोध करने पर भी महावीर उसकी रक्षा नहीं करते। अब मुझे क्या करना चाहिए?' उसके मन में रोष और संकोच-दोनों थे। कुलपति अवसर देख महावीर के पास आया और बड़ी धृति के साथ बोला, 'मुनिवर! निम्नस्तर की चेतना वाला एक पक्षी भी अपने नीड़ की रक्षा करता है। मुझे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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