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निर्वाण / २५५
आयुर्वेद का लंघन यदि परम औषधि है तो उपवास चरम औषधि है । जैन आचार्यों ने लंघन और उपवास में बहुत अन्तर बतलाया है। लंघन का अर्थ केवल अनाहार है किन्तु उपवास का अर्थ बहुत गहरा है। केवल आहार न करना ही उपवास नहीं है। उसका अर्थ है आत्मा की सन्निधि में रहना, चित्तातीत चेतना का उदय होना । इस दिशा में रोग की संभावना ही नहीं हो सकती।
भगवान् ने साधना-काल में कुछ महीनों तक रूक्ष और अरस भोजन के प्रयोग किए। शरीरशास्त्रियों का मत है कि पूरे तत्त्व न मिलने पर शरीर रुग्ण हो जाता है। पर भगवान् कभी रुग्ण नहीं हुए। चेतना के उच्च विकास ने शरीर की आंतरिक क्रिया पूरी तरह बदल दी। उनका प्रभु पूर्णभाव से जागृत हो गया। फिर यह देह-मन्दिर कैसे स्वस्थ, सुन्दर और सशक्त नहीं रहता?
कैवल्य प्राप्त होने पर भगवान् की साधना सम्पन्न हो गई। फिर उन्होंने नैरंतरिक उपवास नहीं किए। उपवास अपने आप में कोई लक्ष्य नहीं है। वह लक्ष्यपूर्ति का एक साधन है। लक्ष्य की पूर्ति होने पर साधन असाधन बन गया।
स्कन्दक परिव्राजक भगवान् के पास गया। उस समय भगवान् प्रतिदिन आहार करते थे। इससे उनका शरीर बहुत पुष्ट, दीप्तिमान् और अलंकार के बिना भी विभूषित जैसा लग रहा था। वह भगवान् के शारीरिक सौन्दर्य को देखकर मुग्ध हो गया।
श्वेताम्बर मानते हैं कि केवली होने के बाद भी भगवान् आहार करते थे। दिगम्बर मानते हैं कि केवली होने के बाद भगवान् आहार नहीं करते थे। वास्तविकता क्या है, यह नहीं कहा जा सकता। सिद्धान्ततः दोनों वास्तविकता से परे नहीं है। कैवल्य और आहार में कोई विरोध नहीं है। इसलिए भगवान् आहार करते थे - यह श्वेताम्बर मान्यता अयथार्थ नहीं है। शक्ति-संपन्न योगी खाए बिना भी शरीर धारण कर सकता है। इसलिए भगवान् आहार नहीं करते थे – यह दिगम्बर मान्यता भी अयथार्थ नहीं है।
भगवान् बहत्तरवें वर्ष में चल रहे थे। उस अवस्था में भी पूर्ण स्वस्थ थे। वे राजगृह से विहार कर अपापा पूरी में आए। वहां की जनता और राजा हस्तिपाल ने भगवान् के पास धर्म का तत्त्व सुना। भगवान् के निर्वाण का समय बहुत समीप आ रहा था। भगवान् ने गौतम को आमंत्रित कर कहा - 'गौतम! पास के गांव में सोमशर्मा नाम का ब्रह्मण है। उसे धर्म का तत्त्व समझाना है । तुम वहां जाओ और उसे सम्बोधि दो।' गौतम भगवान् का आदेश शिरोधार्य कर वहां चले गए।
भगवान् ने दो दिन का उपवास किया। वे दो दिन-रात तक प्रवचन करते रहे। भगवान् ने अपने अंतिम प्रवचन में पुण्य और पाप के फलों का विशद विवेचन किया। १. सौभाग्यपंचम्यादि पर्वकथा संग्रह, पत्र १०० २. समवाओ,५५।४
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