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________________ १२/ श्रमण महावीर 'इस तैयारी में तुम सहयोगी बनोगे?' 'आपकी प्रबल इच्छा है, वह कार्य मुझे करना ही होगा।' सिद्धार्थ ने नंदिवर्द्धन और सुपार्श्व से परामर्श किया और वे समाधि-मृत्यु की तैयारी में लग गए। भोजन की मात्रा कम कर दी। अल्पाहार और उपवास के द्वारा शरीर को साध लिया। अनासक्ति, वैराग्य और आत्मदर्शन के द्वारा उनका मन समाहित हो गया। उन्होंने मृत्यु का इतने शांतभाव से वरण किया कि मृत्यु को स्वयं पता नहीं चला कि वह कब आ गई। माता-पिता वर्द्धमान से बहुत प्रेम करते थे। माता-पिता के प्रति उनके मन में बहुतप्रेम था। अट्ठाईस वर्ष तक वे निरन्तर माता-पिता की छत्रछाया में रहे। अब कुमार के मन में बार-बार यह प्रश्न उभरने लगा - क्या वह छाया सचमुच बादल की छाया थी? माता-पिता के स्वर्गवास से कुमार का स्नेहिल मानस व्यथित हो उठा। जीवन की नश्वरता का सिद्धान्त व्यवहार में उतर आया। संयोग का अन्त वियोग में होता है - यह आंखों के सामने नाचने लगा। वे स्नेह के उस चरम बिन्दु पर पहुंच गए जहां अनुराग विराग के सिंहासन पर विराजमान होता है। चुल्लपिता के पास सुपार्श्व की आशा पर तुषार-पात जैसा हो गया। वे वर्द्धमान के चक्रवर्ती होने का स्वप्न संजोए बैठे थे। प्रसिद्ध ज्योतिषियों ने उन्हें इसका विश्वास दिलाया था। उनका आत्मविश्वास भी यही कह रहा था। उन्होंने अपने विश्वास को दूर-दूर तक प्रचारित किया था। इस प्रचार के आधार पर श्रेणिक, प्रद्योत आदि अनेक राजकुमार वर्द्धमान की सेवा में उपस्थित होते थे। उनके पराक्रम, पुरुषार्थ और चरित्र उनके चक्रवर्ती होने का साक्ष्य दे रहे थे। वर्द्धमान गृहवास को छोड़कर श्रमण बनने को उत्सुक हैं - इस सूचना से सुपार्श्व के सपनों का महल ढह गया। वे भाई के वियोग की व्यथा का परिधान अभी उतार नहीं पाए थे कि वर्द्धमान के अभिनिष्क्रमण की चर्चा ने उन्हें व्यथा का नया परिधान पहना दिया। वर्द्धमान ने देखा, सुपार्श्व पूर्व-सूचना के बिना उनके कक्ष में आ रहे हैं। वे चुल्लपिता के आकस्मिक आगमन से विस्मय में पड़ गए। वे उठकर उनके सामने गए। प्रणाम कर बोले,'चुल्लपिता! आपके आगमन से मैं कृतार्थ हूं। मैं आपकी कृपा के लिए आभारी हूं। पर आपने यहां आने का कष्ट क्यों किया? मुझे आप अपने कक्ष में ही बुला लेते।' १. आयारचूला, १५२५ २. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २४९ । ३. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २४९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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