________________
अहिंसा के हिमालय पर हिंसा का वज्रपात
भगवान् महावीर श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य में ठहरे हुए थे। उनके ज्येष्ठ शिष्य गौतम आहार की एषणा के लिए नगरी में गए। उन्होंने लोगों से सुना कि गोशालक अपने आपको 'जिन' (तीर्थंकर) कहता है।
गौतम भगवान् के पास पहुंचे। उन्होंने भगवान् से कहा - 'मैंने आज श्रावस्ती में सुना है कि गोशालक अपने आपको 'जिन' कहता है। क्या यह ठीक है, भन्ते! मैं उनके जीवन का इतिवृत्त जानना चाहता हूं।'
__ भगवान् ने कहा – गोशालक मंखलि और भद्रा का पुत्र है। मैं दूसरा चातुर्मास नालन्दा के बाहर तन्तुवाय-शाला में बिता रहा था। उस समय गोशालक भी वहीं आकर ठहरा । मैंने एक मास का उपवास किया। पारणे के लिए मैं गृहपति विजय के घर गया। उसने बड़े आदर के साथ मुझे आहार दिया। उसके आहार-दान की जनता में बहुत प्रशंसा हुई। वह गोशालक के कानों तक पहुंची। वह मेरी ओर आकृष्ट हो गया। उसने मुझसे कहा - 'आप मेरे धर्माचार्य हैं । मैं आपका अंतेवासी हूं। आप यह स्वीकार करें।' मैंने यह स्वीकार नहीं किया।
दूसरे मासिक उपवास का पारणा मैंने गृहपति आनन्द और तीसरे मासिक उपवास का पारणा मैंने सुनन्द के घर किया। चौथे मासिक उपवास का पारणा करने के लिए मैं नालन्दा के निकटवर्ती 'कोल्लाग सन्निवेश' में गया। वहां बहुल नाम का ब्राह्मण रहता था। उसके घर मुझे आहार-दान मिला। गोशालक मुझे खोजता-खोजता कोल्लाग सन्निवेश के बाहर पहुंच गया। वहां पण्यभूमि में मुझे मिला। उसने मुझसे कहा- 'आप मेरे धर्माचार्य हैं। मैं आपका अन्तेवासी हूं। आप यह स्वीकार करें।' इस बार मैंने यह स्वीकार कर लिया। अब हम दोनों साथ-साथ रहने लगे। छह वर्ष तक हम साथ रहे, फिर अलग हो गए।'
गौतम ने भगवान् से सुना वह कुछ लोगों को बताया। उनकी बात आगे फैली। वह फैलती-फैलती गोशालक के कानों तक पहुंच गई। उसे वह बात प्रिय नहीं लगी। उसका मन प्रज्वलित हो गया।
एक दिन भगवान् के शिष्य आनन्द नामक श्रमण आहार की एषणा के लए श्रावस्ती में जा रहे थे। गोशालक ने उन्हें देखा। उन्हें बुलाकर कहा - 'आनन्द! यहां आओ और एक दृष्टान्त सुनो।' आनन्द गोशालक के पास चले गए। वे सुनने की मुद्रा में खड़े हो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org