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________________ २४६/ श्रमण महावीर मैं क्रियमाण के सिद्धान्त का निरूपण निश्चय नय के आधार पर किया है। उसके अनुसार क्रियाकाल और निष्ठाकाल अभिन्न होते हैं। प्रत्येक क्रिया अपने क्षण में कुछ निष्पन्न करके ही निवृत्त होती है। यदि क्रियाकाल में कार्य निष्पन्न न हो तो वह क्रिया के निवृत्त होने पर किस कारण से निष्पन्न होगा ? वस्त्र का पहला तन्तु यदि वस्त्र नहीं है तो उसका अन्तिम तन्तु वस्त्र नहीं हो सकता । अन्तिम तन्तु का निर्माण होने पर कहा जाता है कि वस्त्र निर्मित हो गया । यह स्थूल दृष्टि है, व्यवहार नय है । वास्तविक दृष्टि यह है कि तन्तु-निर्माण के प्रत्येक क्षण ने वस्त्र का निर्माण किया है। यदि पहले तन्तु के क्षण में भी वस्त्र का निर्माण नहीं होता तो अन्तिम तन्तु के क्षण में भी वस्त्र का निर्माण नहीं हो पाता । भगवान् ने नयों की व्याख्या कर जमालि को समझाया पर उसने अपना आग्रह नहीं छोड़ा। वह सदा के लिए महावीर के संघ से मुक्त होकर अपने सिद्धान्त को फैलाता रहा । ' यह घटना भगवान् के केवली होने के चौदहवें वर्ष में घटित हुई । ' संघ की स्थापना का भी यह चौदहवां वर्ष था । तेरह वर्षों तक संघ में कोई भेद नहीं हुआ । चौदहवें वर्ष में यह संघ-भेद का सूत्रपात हुआ । भगवान् का व्यक्तित्व इतना विराट् था कि जमालि द्वारा संघ में भेद डालने का तीव्र प्रयत्न करने पर भी उसका व्यापक प्रभाव नहीं हुआ। प्रियदर्शना जमालि की पत्नी थी। वह जमालि के साथ ही भगवान् के पास दीक्षित हुई थी। उसके पास साध्वियों का समुदाय था । उसने जमालि का साथ दिया । वह भगवान् के संघ से अलग हो गई। एक बार वह अपने साध्वी समुदाय के साथ विहार करती हुई श्रावस्ती पहुँची । वहाँ ढंक नाम का कुम्हार था । वह उसकी भांडशाला में ठहरी । वह भगवान् महावीर का उपासक था। वह तत्व को जानता था । उसने एक दिन साध्वी प्रियदर्शना की चादर पर एक अग्निकण फैंका। चादर जलने लगी। साध्वी प्रियदर्शना ने भावावेश में कहा- आर्य । यह क्या किया ? मेरी चादर जल गई। ढंक बोला- - चादर जली नहीं, वह जल रही है। जमालि के मतानुसार चादर चुकने पर ही कहा जा सकता है कि चादर जल गई। अभी आपकी चादर जल रही है, फिर आप कहती हैं कि मेरी चादर जल गई ? - ढंक के तर्क ने साध्वी प्रियदर्शना के मानस पर गहरी चोट की। उसका विचार परिवर्तित हो गया। वह अपने साध्वी समुदाय के साथ पुनः भगवान् महावीर के संघ में सम्मिलित हो गई । ३ 1. भगवई, ९ १५६-२३४, आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ. ४१६ ४१९ 2. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ. ४१९ : चौद्दस वासाणि .... उपण्णोत्ति । 3. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ. ४१८ साविय णं पियदसणा पण्णवेति । ताहे गता सहस्सपरिवारा सामि उवसंपज्जिताणं विहरति । Jain Education International ..... For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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