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२४८ / श्रमण महावीर गए। गोशालक कहने लगा - 'पुराने जमाने की बात है। कुछ व्यापारी माल लेकर दूर देश जा रहे थे। रास्ते में जंगल आ गया। वे भोजन-पानी की व्यवस्था कर जंगल में चले। कुछ दूर जाने पर उनके पास का जल समाप्त हो गया। आसपास में न कोई गांव और न कोई जलाशय । वे प्यास से आकुल होकर चारों ओर जल खोजने लगे।खोजते-खोजते उन्होंने चार बांबिया देखीं। एक बांबी को खोदा। उसमें जल निकला - शीतल ओर स्वच्छ। व्यापारियों ने जल पिया और अपने बर्तन भर लिए। कुछ व्यापारियों ने कहा- अभी तीन बांबीयां बाकी हैं । इन्हें भी खोद डालें । पहली से जलरत्न निकला है। सम्भव है दूसरी से स्वर्ण रत्न निकल आए। उनका अनुमान सही निकला। उन्होंने दूसरी बांबी को खोदा, उसमें सोना निकला। उनका मन लालच से भर गया। अब वे कैसे रुक सकते थे? उन्होंने तीसरी बांबी की भी खुदाई की। उसमें रत्नों का खजाना मिला । उनका लोभ सीमा पार कर गया। वे परस्पर कहने लगे – 'पहली में हमें जल मिला, दूसरी में सोना और तीसरी में रत्न। चौथी में संभव है और भी मूल्यवान् वस्तु मिले।' उनमें एक वणिक् अनुभवी
और सबका हितैषी था। उसने कहा - 'हमें बहुत मिल चुका है। अब हम लालच न करें। चौथी बांबी को ऐसे ही छोड़ दें। हो सकता है इसमें कुछ और ही निकले। उसके इस परामर्श पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। उन व्यापारियों के हाथ चौथी बांबी को तोड़ने आगे बढ़े। जैसे ही उन्होंने बांबी को तोड़ने का प्रयत्न किया, एक भयंकर फुफकार से वातावरण कांप उठा। एक विशालकाय सर्प बाहर आया और बांबी के शिखर पर चढ़ गया। वह दृष्टिविष था- उसकी आंखों में जहर था। उसने सूर्य की ओर देखा, फिर अपलक आंखों से उन व्यापारियों के सामने देखा। उसकी आंखों से इतनी तीव्र विष-रश्मियां निकलीं कि वे सब के सब व्यापारी वहीं भस्म हो गए। एक वही व्यापारी बचा जिसने सबको रोका था।
आनन्द! तुम्हारे धर्माचार्य पर भी यही दृष्टांत लागू होता है। उन्हें बहुत मानसम्मान, पूजा-प्रतिष्ठा मिली है। फिर भी वे संतुष्ट नहीं हैं। वे कहते हैं - 'गोशालक मेरा शिष्य है। वह जिन नहीं है। तुम जाओ और अपने धर्माचार्य को सावधान कर दो, अन्यथा मैं जाऊंगा और उनकी वही दशा करूंगा जो दृष्टि-विष सर्प ने उन व्यापारियों की की थी। सिर्फ तुम बच पाओगे।'
आनन्द के मन में एक हलचल-सी पैदा हो गई। वे हालाहला कुम्भकारी की भांडशाला से निकलकर शीघ्र भगवान् के पास आए। उन्होंने गोशालक के साथ हुई सारी बातचीत भगवान् के सामने रखी। वे भगवान् की शक्ति को जानते थे, फिर भी उनके मन में एक प्रकंपन पैदा हो गया। वे कंपित स्वर में बोले - 'भंते! क्या गोशालक अपनी तैजस शक्ति से भस्म करने में समर्थ है?'
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