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संघ-भेद
क्षत्रियकुण्डग्राम में जमालि नाम का क्षत्रियकुमार रहता था। एक दिन उसने देखा क्षत्रियकुण्ड के निवासी ब्राह्मणकुण्ड की ओर जा रहे हैं। उसने अपने कंचुकी को बुलाकर इसका कारण पूछा। उसने बताया 'भगवान् महावीर ब्राह्मणकुण्ड में पधारे हैं। हमारे ग्रामवासी लोग उनके पास जा रहे हैं।' जमालि के मन में भी जिज्ञासा उत्पन्न हुई । वह अपने परिवार के साथ भगवान् के समवसरण में गया। भगवान् के पास धर्म सुन जमालि सम्बुद्ध हो गया। वह बोला - भंते! आपके प्रवचन में मेरी श्रद्धा निर्मित हुई है। आपने जो कहा वह सत्य है, असंदिग्ध है। भंते! मेरे मन में आत्म-दर्शन की भावना प्रबल हो गई है। मैं अब मुनि बनना चाहता हूँ।' भगवान् ने कहा- 'जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा करो ।'
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भगवान् स्वतंत्रता के प्रवक्ता थे । वे किसी पर किसी प्रकार का दबाव नहीं डालते थे। उनका स्वीकृति - सूत्र था 'यथासुखम् ' । भगवान् ने 'यथासुखम् ' कहकर जमालि को दीक्षित होने की स्वीकृति दी। जमालि माता-पिता और पत्नियों की स्वीकृति प्राप्त कर मुनि बन गया। उसके साथ पाँच सौ क्षत्रियकुमार दीक्षित हुए। वह ग्यारह अंगसूत्रों का अध्ययन कर 'आचारज्ञ' और तपस्या की आराधना कर तपस्वी हो गया ।
एक बार जमालि भगवान् के पास आया। उसने कहा- 'भंते! मैं पांच सौ श्रमणों के साथ जनपद-विहार करना चाहता हूँ । आप मुझे आज्ञा दें ।' भगवान् मौन रहे । जमालि ने फिर पूछा । भगवान् फिर मौन रहे। जमालि ने भगवान् की अनुमति प्राप्त किए बिना ही जनपद-विहार के लिए प्रस्थान कर दिया।
जमालि पाँच सौ श्रमणों के साथ जनपद-विहार करता हुआ श्रावस्ती पहुँचा। वह कोष्ठक चैत्य में ठहरा हुआ था । असंतुलित और अव्यवस्थित भोजन के कारण उसे पित्तज्वर हो गया। उसका शरीर दाह से जलने लगा। उसने श्रमणों से कहा - 'बिछौना बिछा दो ।' श्रमण बिछौना बिछाने लगे। जमालि शारीरिक वेदना से अभिभूत हो रहा था । उसने आतुर स्वर में पूछा 'क्या बिछौना बिछा चुके ?"
श्रमणों ने कहा 'भंते! बिछाया नहीं, बिछा रहे हैं।' श्रमणों का उत्तर सुन जमालि के मन में तर्क उठा 'भगवान् महावीर क्रियमाण को कृत कहते हैं। जो किया जा रहा है, उसे किया हुआ कहते हैं । किन्तु यह सिद्धांत परीक्षण की कसौटी पर सही नहीं उतर रहा है। मैं प्रत्यक्ष अनुभव कर रहा हूँ - जो बिछौना बिछाया जा रहा है, वह बिछा हुआ नहीं है। यदि बिछा हुआ होता तो मैं उस पर सो जाता।' जमालि ने श्रमणों को आमंत्रित कर अपने मन का तर्क उनके सामने रखा। कुछ श्रमणों को जमालि का तर्क बहुत अच्छा लगा। कुछ श्रमणों ने उसे अस्वीकार कर दिया। जमालि महावीर के संघ से मुक्त होकर
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