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________________ सहयात्रा : सहयात्री / २३७ 'सत्य अंधा और बहरा नहीं है। मैंने उसकी दृष्टि से देखा है कि वास्तव में आत्मा ही माता है और आत्मा ही पिता है।' 'क्या तुम्हारी पत्नी का प्रश्न नहीं है?" 'यदि वधक मुझे मारने में सफल हो जाता तो क्या होता?' 'वह नियति का चक्र होता ।' 'यह सत्य का उपक्रम है ।' 'श्रेणिक मौन। सारा वातावरण मौन । वारिषेण के चरण भगवान् महावीर की दिशा में आगे बढ़ गए।' ४. राजगृह का वैभव उन्नति के शिखर को छू रहा था। वह धन और धर्म - दोनों की समृद्धि का केन्द्र बन रहा था । भगवान् महावीर का वह मुख्य विहार स्थल था । भगवान् ने चौदह चतुर्मास वहां बिताए । वैभारगिरी की गुफाओं में भगवान् के सैकड़ों श्रमणों ने साधना की लौ जलाई। उसके आसपास फैले हुए जंगलों ने अनेक श्रमणों को एकान्त साधना के लिए आकृष्ट किया। उन्हीं जंगलों और गुफाओं में एक दूसरी साधना भी चल रही थी। राजगृह को आतंकित करने वाले चोर और डाकू उन्हीं की शरण में डेरा डाले बैठे थे । भगवान् ने ठीक ही कहा था कि जो आत्मोत्थान का हेतु हो सकता है वह आत्मपतन का भी हेतु हो सकता है। जो आत्मपतन का हेतु हो सकता है वह आत्मोत्थान का भी हेतु हो सकता है। वैभारगिरि की गुफाएं और जंगल भगवान् के श्रमणों के लिए आत्मोत्थान के हेतु बन रहे थे तो वे चोर और डाकुओं के लिए आत्म-पतन के हेतु भी बन रहे थे। लोहखुरो नामक चोर ने वैभारगिरि की गुफा को अपना निवास-स्थल बना रखा था। उसकी पत्नी का नाम था रोहिणी । उसके पुत्र का नाम था रोहिणेय । लोहखुरो दुर्दान्त दस्यु था । उसने राजगृह के धनपतियों को आतंकित कर रखा था। वह बहुत क्रूर था । उसे आत्मा और परमात्मा में कोई विश्वास नहीं था । वह धर्म और धर्म-गुरु के नाम से ही घृणा करता था । वह वर्षों तक राजगृह को आतंकित किए रहा। एक दिन काल ने उसे आतंकित कर दिया। मौत उसके सिर पर मंडराने लगी। उसने रोहिणेय से कहा - 'मैं अंतिम बात कह रहा हूं। बेटे ! उसका जीवन भर पालन करना । ' रोहिणेय बहुत गम्भीर हो गया। उसका उत्सुक मन पिता के निर्देश की प्रतीक्षा में लग गया। लोहखुरो ने कहा'राजगृह में महावीर नाम के एक श्रमण हैं। मैं सोचता हूं, तुमने उनका नाम सुना होगा ?" पिता! मैंने उनका नाम सुना है। वे बहुत प्रभावशाली व्यक्ति हैं। राजगृह उनके नाम पर मंत्रमुग्ध है।' 'पुत्र ! उनसे बढ़कर अपना कोई शत्रु नहीं है। ' 'यह कैसे ?' 'एक बार उनके पास मेरे सहयोगी चले गए। लौटकर आए तो वे चोर नहीं रहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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