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सहयात्रा : सहयात्री / २३५
'काल का चक्र चलते-चलते सन्देह की धूली में फंस जाता है। इस नियति को मैं कैसे टाल सकती हूं?'
'तो विश्वास का प्रामाण्य चाहती हो?' 'इस निसर्ग को तुम कैसे टाल सकोगे?' 'मैं तैयार हूं प्रामाण्य देने को। कहो, तुम क्या चाहती हो?' 'महारानी चिल्लणा का हार।' 'क्या सोच-समझकर कह रही हो?' 'हां।' 'क्या यह सम्भव है?' 'प्राणों की आहुति दिए बिना क्या प्रेम पाना सम्भव है?' 'तो क्या मुझे शलभ होना है?' 'इसका निर्णय देने वाली मैं कौन?' 'मैं निर्णय कर चुका हूं। चिल्लणा का हार शीघ्र ही तुम्हारे गले में विराजित
होगा।'
विद्युत् कल्पनाशील चोर था। उसकी सूझ-बूझ अभयकुमार जैसे प्रतिभाशाली महामात्य को भुलावे में डाल देती थी। वह विद्युत् जैसा चपल-त्वरित कार्यवादी था। वह छद्मवेश बना अन्तःपुर में पहुंचा। हार चुराकर चुपके से निकल आया। वह हार लिये जा रहा था। कोतवाल की दृष्टि उस पर पड़ गई। उसने सहज भाव से पूछा -
'विद्युत् ! आज क्या छिपाए जा रहे हो?' 'कुछ नहीं, श्रीमान् !' 'कुछ तो है।' 'किसने सूचना दी है आपको?' 'तुम्हारे भारी पैर ही सूचना दे रहे हैं।' 'नहीं, कुछ नहीं है। आप निश्चिन्त रहिए।'
विद्युत् कोतवाल को आश्वस्त कर आगे बढ़ गया। कुछ ही क्षणों में आरक्षी-केन्द्रों को आदेश मिला कि महारानी चिल्लणा का हार किसी ने चुरा लिया है। चोर को पकड़ा जाए।
कोतवाल ने आरक्षीदल के साथ विद्युत् का पीछा किया। उसे इसका पता चल गया। अब हार को पास में रखना खतरे से खाली नहीं था। वह श्मशान की ओर दौड़ा। वारिषेण ध्यानमुद्रा में खड़ा था। विद्युत् उसके पास हार छोड़कर भाग गया।
आरक्षीदल विद्युत् का पीछा करता हुआ श्मशान में पहुंचा। उसने देखा, महारानी का हार एक साधक के पास पड़ा है। कोतवाल ने सोचा, कोई ढोंगी आदमी है। यह हार
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