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________________ १० / श्रमण महावीर दर्पण में प्रतिबिम्ब की भांति अतीत उनकी आंखों के सामने उतर आया- 'मैं त्रिपृष्ठ नाम का वासुदेव था। एक रात्रि को रंगशाला में नृत्यवाद्य का आयोजन हुआ। मैं और मेरे सभासद् उसमें उपस्थित थे। मैंने अपने अंगरक्षक को कहा, 'मुझे नींद न आए तब तक यह आयोजन चलाना। मुझे नींद आने लगे तब इसे बन्द कर देना ।' उस दिन मैं बहुत व्यस्त रहा। दिन भर के कार्यक्रम से थका हुआ था। रात्रि की ठंडी वेला । मनोहर नृत्य, लुभाने वाला वाद्य - गीत। समय, नर्तक, गायक और वादक का ऐसा दुर्लभ योग मिला कि सबका मन प्रफुल्लित हो उठा। लोग उस कार्यक्रम में तन्मय हो गए। वे कालातीत स्थिति का अनुभव करने लगे। मुझे नींद का अनुकूल वातावरण मिला। मैं थोड़े समय में ही निद्रालीन हो गया। आयोजन चलता रहा । गहरी नींद के बाद मै जागा । मेरे जागने के साथ मेरा अहं भी जागा। मैंने अंगरक्षक से पूछा, 'क्या मेरी आज्ञा का अतिक्रमण नहीं हुआ है? वह कुछ उत्तर न दे सका। वह नृत्य और वाद्य - गीत में इतना खोया हुआ था कि उसे मेरी नींद और मेरे जागने का कोई भान ही नहीं रहा। मैं आज्ञा के उल्लंघन से तिलमिला उठा। मेरा क्रोध सीमा पार कर गया। मैंने आरक्षीवर्ग के द्वारा उसके कानों में गर्म सीसा डलवाया। मेरी हिंसा उसके प्राण लेकर ही शांत हुई ।' मैं अनुभव करता हूं कि यह मेरा जन्म हिंसा का प्रायश्चित्त करने के लिए ही हुआ है । मेरी सारी रुचि, सारी श्रद्धा, सारी भावना अहिंसा की आराधना में लग रही है। उसके लिए मैं जो कुछ भी कर सकता हूं, करूंगा। मेरे प्राण तड़प रहे हैं उसकी सिद्धि के लिए । मैं चाहता हूं कि वह दिन शीघ्र आए जिस दिन मैं अहिंसा से अभिन्न हो जाऊं, किसी जीव को कष्ट न पहुंचाऊं । आज क्या हो रहा है? हम बड़े लोग हैं छोटे लोगों के प्रति सद्व्यवहार नहीं करते। उनकी विवशता का पूरा-पूरा लाभ उठाते हैं । पशु की तरह उनका क्रय-विक्रय करते हैं । उनके साथ कठोरता बरतते हैं। मुझे लगता है जैसे हमने मानवीय एकता को समझा ही नहीं । छोटा-सा अपराध होने पर कठोर दण्ड दे देते हैं । नाना प्रकार की यातनाएं देना छोटी बात है । अवयवों को काट डालना भी हमारे लिए बड़ी बात नहीं है। मनुष्य के प्रति हमारा व्यवहार ऐसा है, तब प्रशुओं के प्रति अच्छे होने की आशा कैसे की जा सकती है? मैं इस स्थिति को बदलना चाहता हूं। यह डंडे के बल पर नहीं बदली जा सकती है? यह बदली जा सकती है हृदय परिवर्तन के द्वारा। यह बदली जा सकती है प्रेम की व्यापकता के द्वारा। इसके लिए मुझे हर आत्मा के साथ आत्मीय सम्बन्ध स्थापित करना होगा। समता की वेदी पर अपने अहं का विसर्जन करना होगा । यह कार्य मांगता है बहुत बड़ा बलिदान, बहुत बड़ी साधना और बहुत बड़ा त्याग ।' १. (क) महावीरचरियं प्र० ३ ०६२ । (ख) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, १० । १ । १७७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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