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प्रवृत्ति बाहर में : मानदण्ड भीतर में / २२९
करता-करता उसके चरम बिन्दु पर पहुंच गया। तब उसे अपने अस्तित्व का भान हुआ। वह कल्पना-लोक से उतर वर्तमान के धरातल पर लौट आया। वहां पहुंचकर उसने देखा - न कोई राज्य है, न कोई राजा और न कोई मंत्रियों का षड्यंत्र । वह सब वाचिक था। उसने राजर्षि को इतना उत्तेजित कर दिया कि वह कुछ सोचे-विचारे बिना ही कल्पना-लोक की उड़ान भरने लगा। अब वर्तमान की पकड़ मजबूत हो गई है। इसलिए राजर्षि निर्वाण की दिशा में बढ़ रहा है।'
सम्राट् भगवान् की वाणी को समझने का प्रयत्न कर रहा था। इतने में भगवान् ने कहा - श्रेणिक ! राजर्षि अब केवली हो चुका है।'
__पाप की प्रवृत्ति करने में मन के सामने शरीर का कितना मूल्य है, यह बता रही है राजर्षि की ध्यान-मुद्रा । ध्यान-मुद्रा में खड़े हुए शरीर को मन के दोष का भार ढोना पड़े, यह उसकी दुर्बलता ही तो है। प्रवृत्ति के सत् या असत् होने का मानदंड यदि शरीर ही हो तो ध्यान-मुद्रा में खड़ा हुआ व्यक्ति नरक की दिशा में नहीं जा सकता।
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