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२२८ / श्रमण महावीर
'तो उनकी क्या गति होगी ?"
'नरक ।'
"नरक?"
'हां, नरक ।'
'यह कैसे, भंते ? '
यह शरीर नरक में नहीं जाएगा। जो नरक में जा सकता है, वह अभी उसी दिशा में आगे बढ़ रहा है।
भंते! मैं उलझ गया हूं। आप मुझे सुलझाइए । '
भगवान् ने कहा- तुम्हारे आगे दो सेनानी चल रहे थे - सुमुख और दुर्मुख । उसने देखा एक मुनि अनावृत आकाश में एक पैर के बल पर खड़े हैं। दृष्टि सूर्य के सामने है । सुमुख बोला- 'कितनी महान् साधना है ! '
दुर्मुख बोल उठा - 'यह क्या साधना ? इसने सब कुछ नष्ट कर दिया । यह पोतनपुर का राजा प्रसन्नचन्द्र है। इसने अपने छोटे बच्चे के कंधों पर राज्य का भार वैसे ही डाल दिया है, जैसे बड़ी गाड़ी में छोटा बछड़ा जोत दिया हो। वह बेचारा शासन चलाने योग्य नही है। उसके मंत्री राजा दधिवाहन से मिल गए हैं। अब उसे राज्यच्युत करने का षडयन्त्र चल रहा है । यह कैसा धर्म ? यह कैसी साधना ?"
वे दोनों बातें करते-करते आगे बढ़ गए।
दुर्मुख की बातें सुन मुनि का ध्यान भंग हो गया। उन्होंने सोचा - मैंने मंत्रियों को सदा आगे बढ़ाया। आज वे बदल गए। लगता है वे सत्तालोलुप हो गए। मनुष्य कितना कृतघ्न होता है ! वह अवसर का लाभ उठाने से नहीं चूकता। मैं वहां जाऊं और उन्हें कृतघ्नता का फल चखाऊं ।
राजर्षि संकल्प का आरोहण कर पोतनपुर पहुंच गया। मंत्रियों को उनकी करनी का फल चखाना शुरू कर दिया। उसका शरीर खड़ा है ध्यान की मुद्रा में और उसका मन लड़ रहा है पोतनपुर के प्रांगण में ।
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सम्राट् ने कहा 'भंते! बहुत आश्चर्य है। ये हमारी आंखें कितना धोखा खा जाती हैं। हम शरीर के आवरण में छिपे मन को देख ही नहीं पाते। भंते! अब भी राजर्षि नरक की दिशा में प्रयाण कर रहे हैं या लौट रहे हैं?"
'लौट चुके है।'
* भंते किस दिशा में?'
'निर्वाण की दिशा में ।'
'यह कैसे हुआ, भंते ?"
' आवेश का अंतिम बिन्दु लौटने का आदि-बिन्दु होता है । राजर्षि मानसिक युद्ध
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