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बौद्ध साहित्य में महावीर
बौद्ध पिटकों में भगवान् महावीर के सिद्धांतों का बार-बार उल्लेख हुआ है। उन सबमें भगवान् महावीर के जीवन और सिद्धांतों का अपकर्षण दिखलाने का प्रयत्न है। यह उस समय की शैली या साम्प्रदायिक मनोवृत्ति है । इसकी उपेक्षा की जा सकती है, किन्तु पिटक साहित्य में भगवान् महावीर के विषय में कुछ तथ्य सुरक्षित हैं, उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। वे बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। उनमें भगवान् के विहार और सिद्धांतों के बारे में कुछ नई जानकारी मिलती है।
भगवान् महावीर श्रद्धा की अपेक्षा ज्ञान को अधिक महत्त्व देते थे।
उस समय निग्गंठ नातपुत्त मच्छिकासण्ड में अपनी बड़ी मण्डली के साथ पहुंचा हआ था।
गृहपति चित्र ने सुना कि निग्गंठ नातपुत्त मच्छिकासण्ड में ठहरे हुए हैं। चित्र कुछ उपासकों के साथ वहां पहुंचा और कुशल-क्षेम पूछकर एक ओर बैठ गया।
एक ओर बैठे गृहपति चित्र से निग्गंठ नातपुत्त बोला -- 'गृहपति! तुम्हें क्या ऐसा विश्वास है कि श्रमण गौतम.को भी अवितर्क-अविचार समाधि लगती हैं? उसके वितर्क और विचार का क्या निरोध होता है?'
'भन्ते! मैं श्रद्धा से ऐसा नहीं मानता कि भगवान् को अविर्तक-अविचार समाधि लगती है।'
इस पर निग्गंठ ने अपनी मण्डली की ओर देखकर कहा - 'आप सब देखें, चित्र गृहपति कितना सीधा है, सच्चा है, निष्कपट है! वितर्क और विचार का निरोध कर देना मानो हवा को जाल से रोकना है।'
'भन्ते! ज्ञान बड़ा है या श्रद्धा?' 'गृहपति! श्रद्धा से ज्ञान ही बड़ा है।'
'भन्ते! जब मेरी इच्छा होती है, मैं प्रथम-ध्यान को प्राप्त होकर विहार करता हूं। द्वितीय-ध्यान को, तृतीय-ध्यान को और चतुर्थ-ध्यान को प्राप्त कर विहार करता हूं।'
'भन्ते! मैंने स्वयं ऐसा जाना और देखा है। ऐसी स्थिति में क्या मैं किसी ब्राह्मण या श्रमण की श्रद्धा से ऐसा जानूंगा कि अवितर्क-अविचार समाधि होती है तथा वितर्क और विचार का निरोध होता है?'
चित्र की यह बात सुनकर निग्गंठ नातपुत्त ने अपनी मण्डली से कहा- 'आप लोग
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