SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वज्ञता : दो पार्श्व दो कोण / २२१ भगवान् के गणधर थे। वे भगवान् के साथ रहे थे। उनके प्रधान शिष्य थे जम्बू । उनके पास कुछ श्रमण और ब्राह्मण आए। उनसे धर्म-चर्चा की। जम्बू ने अहिंसा धर्म का मर्म समझाया। उनकी बुद्धि आलोक से जगमगा उठी। वे बोले - 'भन्ते ! इस अहिंसा धर्म का प्रतिपादन किसने किया है?' 'भगवान् महावीर ने।' 'उनका ज्ञान और दर्शन कितना विशाल था? आपने अपने आचार्य के पास सुना हो तो हमें बताएं।' 'मेरे आचार्य सुधर्मा ने मुझे बताया था कि भगवान् का ज्ञान और दर्शन अनन्त था।' जो ज्ञान अनावृत होता है, वह अनन्त होता है। वह अनावृत ज्ञान ही सर्वज्ञता है। तार्किक युग में सर्वज्ञता की परिभाषा काफी उलझ गई। स्फटिक का निर्मल होना उसकी प्रकृति है। यह कोई आश्चर्य नहीं है। चेतना का निर्मल होना भी आत्मा की सहज प्रकृति है। वह कोई आश्चर्य नहीं है। आश्चर्य उन लोगों को होता है जिनका ज्ञान आवृत है, जो इन्द्रिय के माध्यम से वस्तु को जानते हैं। परिव्राजक स्कंदक भगवान् महावीर के पास आ रहा था। गौतम उसके सामने गए। उन्होंने कहा - 'स्कंदक! क्या यह सच है कि पिंगल निर्ग्रन्थ ने आपसे प्रश्न पूछे? आप उनका उत्तर नहीं दे सके, इसीलिए आप भगवान् महावीर के पास जा रहे हैं?' गौतम की यह बात सुन स्कंदक आश्चर्य-चकित हो गया। उसने कहा - 'यह मेरे मन की गूढ बात किसने बताई? कौन है ऐसा ज्ञानी?' गौतम बोले - 'यह बात भगवान् महावीर ने बताई। वे ज्ञान-दर्शन को धारण करने वाले अर्हत् हैं । वे भूत, भविष्य और वर्तमान को जानते हैं । वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं।' भगवान् यदा-कदा ऐसी अलौकिक बातें, पूर्वजन्म की घटनाएं बताया करते थे। ये उनके सर्वज्ञ होने की साक्ष्य नहीं है। उनकी सर्वज्ञता उनकी चेतना के अनावृत होने में ही चरितार्थ होती है। १. भगवई, २।३६-३८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy