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________________ २२० / श्रमण महावीर अविश्वास प्रकट किया। तब भन्ते! मुझे भगवान् के ही प्रति प्रीति उत्पन्न हुई।' 'कौन हैं ये उदायी! जो सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होने का दावा करते हैं और इधर-उधर जाने लगे?' 'भन्ते! निग्गंठ नातपुत्त !' जैन दर्शन का अभिमत है कि जिसका ज्ञान अनावृत हो जाता है, वह सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन जाता है। महावीर ही सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो सकता है, ऐसा महावीर ने नहीं कहा। उन्होंने कहा - ज्ञानावरण और दर्शनावरण के विलय की साधना करने वाला कोई भी व्यक्ति सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो सकता है।' भगवान् महावीर की सर्वज्ञ और सर्वदर्शी के रूप में सर्वत्र प्रसिद्धि थी - यह उक्त चर्चा से स्पष्ट है। सर्वज्ञ होना आन्तरिक उपलब्धि है। बाह्य को देखने वाली आंखें उसे जान नहीं पातीं। भगवान् पार्श्व के शिष्य भगवान् महावीर के सर्वज्ञत्व को सहसा स्वीकार नहीं करते थे। वे समीक्षा के बाद ही उसे स्वीकार करते थे। एक बार भगवान् वाणिज्यग्राम के पार्श्ववर्ती दूतिपलाश चैत्य में ठहरे हुए थे। उस समय भगवान् पार्श्व के शिष्य 'गांगेय' नामक श्रमण भगवान् के पास आए और अनेक प्रश्न पूछे। प्रश्नोत्तरों के क्रम में भगवान् ने कहा - 'लोकनेता पार्श्व ने लोक को शाश्वत बतलाया है। इसलिए मैं कहता हूं कि जीव सत् रूप में उत्पन्न और च्युत होते हैं।' यह सुन गांगेय बोले - 'भन्ते ! आप जो कह रहे हैं, वह स्वयं जानते हैं या नहीं जानते? आप किसी से सुने बिना कहते हैं या सुनकर कहते हैं?' तब भगवान् ने कहा – 'मैं स्वयं जानता हूं, बिना सुने जानता हूं।' 'आप स्वयं कैसे जानते हैं?' 'मेरा ज्ञान अनावृत है। जिसका ज्ञान अनावृत होता है, वह मित को भी जानता है और अमित को भी जानता है । मैं मित और अमित- दोनों को जानता हूं। मैंने अर्हत् पार्श्व के वचन का उद्धरण तुम्हारी श्रद्धा को सहारा देने के लिए दिया है। भगवान् की वाणी सुन गांगेय का संदेह दूर हो गया। उन्हें विश्वास हो गया कि भगवान् सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं। मन का विश्वास जागने पर उन्होंने भगवान् को वंदना की और अपने को भगवान् के धर्म-शासन में विलीन कर दिया। भगवान् महावीर सर्वज्ञ थे या नहीं, इसका निर्णय मैं नहीं दे सकता। क्योंकि मैं सर्वज्ञ नहीं हूं। असर्वज्ञ आदमी किसी को सर्वज्ञ स्थापित नहीं कर सकता। सुधर्मा १. भगवई, ९ । १२२-१३४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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