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________________ सर्वज्ञता : दो पार्श्व दो कोण अतीत के व्यक्तित्व का दर्शन हमें दो आयामों में होता है। एक प्रशंसा का आयाम है, दूसरा आलोचना का। इन दोनों से व्यक्ति को समझा जा सकता है। ___ भगवान् महावीर का व्यक्तित्व इन दोनों आयामों में फैला हुआ है। कोई भी व्यक्तित्व एक आयाम में नहीं फैलता, केवल प्रशस्य या केवल आलोच्य नहीं होता। जैन साहित्य में महावीर का प्रशस्य व्यक्तित्व मिलता है और बौद्ध साहित्य में आलोच्य। तटस्थता को दोनों की एक साथ अपेक्षा है, पर वह प्राप्त नहीं है। वैदिक साहित्य में महावीर की प्रशंसा या आलोचना – दोनों नहीं है, यह बहुत बड़ा प्रश्न है । इतिहासकार को अभी इसका उत्तर देना है। भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध दोनों श्रमण परम्परा से संबद्ध हैं। दोनों में असमानता के तत्व होने पर भी समानता के तत्व कम नहीं है। साहित्य के साक्ष्य से ऐसा प्रतीत होता है कि जैन और बौद्ध दोनों संघ प्रतिस्पर्धी थे। जैन आगमों में कहीं भी बुद्ध की कटु आलोचना नहीं है। बौद्ध पिटकों में महावीर की बहुत कटु आलोचना है, अपशब्दों का प्रयोग भी है। बुद्ध ने ऐसा नहीं भी किया हो। वे महान् साधक थे। फिर वे ऐसा किसलिए करते? यह सब पिटककारों की भावना का प्रतिबिम्ब लगता है। उस समय जैन संघ बहुत शक्तिशाली था। उसे बौद्धों पर आक्षेप करने की संभवतः आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुई। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि अशक्त व्यक्ति सशक्त के प्रति आक्षेप करता है, सशक्त अशक्त के प्रति आक्षेप नहीं करता। ___जैन आगमों के अनुसार भगवान् महावीर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे। वे सम्पूर्ण लोक के सब जीवों के सब पर्याय जानते- देखते थे। बौद्ध पिटकों में भगवान् महावीर के सर्वज्ञ और सर्वदर्शी स्वरूप पर व्यंग्य किया गया है। एक समय भगवान् बुद्ध राजगृह के वेणुवन कंदलक निकाय में विहार करते थे। उस समय सकुल उदायी परिव्राजक महती परिषद् के साथ परिव्राजकाराम में वास करता था। भगवान् बुद्ध पूर्वाह्न के समय-सकुल उदायी के पास गए। उदायी ने भगवान् बुद्ध से धर्मोपदेश देने का अनुरोध किया। भगवान् ने कहा – 'उदायी ! तुम ही कुछ कहो' तब उदायी ने कहा - 'भन्ते! पिछले दिनों जो सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होने का दावा करते हैं, चलते, खड़े, सोते, जागते भी मुझे निरन्तर ज्ञान दर्शन उपस्थित रहता है, यह कहते हैं, वे प्रश्न पूछने पर इधर-उधर जाने लगे। बाहर की कथा में जाने लगे। उन्होंने कोप, द्वेष और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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