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अलौकिक और लौकिक
जो सबके जीवन में घटित होता है वह सहज ही बुद्धिगम्य हो जाता है। जो कुछेक व्यक्तियों के जीवन में घटित होता है वह बुद्धि से परे होता है। उसे हम अलौकिक कहकर स्वीकार करते हैं या उसे सर्वथा अस्वीकार कर देते हैं। जो घटित होता है, वह स्वीकृति या अस्वीकृति से निरपेक्ष होकर ही घटित होता है।
__ महावीर के जीवन की घटना है कि वे गर्भ में थे। उनका ज्ञान बहुत स्पष्ट था। छह मास बीत जाने पर एक दिन उन्होंने अकस्मात् हिलना-डुलना बन्द कर दिया। त्रिशला के मन में आशंका उत्पन्न हुई कि क्या गर्भ जीवित नहीं है? यदि है तो यह हलन-चलन बन्द क्यों? चिन्ता की ऊर्मियां उसकी प्रसन्नता को लील गई। उसका उदास चेहरा देख सखी बोली -
'बहन! कुशल हो, न?' 'गर्भ के कुशल नहीं, तब मैं कुशल कैसे हो सकती हूं?' 'यह क्या कह रही हो?' 'सच कह रही हूं। यह कोई मखौल नहीं है।' 'हाय ! यह क्या हुआ?' 'कल्पवृक्ष मरुभूमि में अंकुरित होता है क्या?'
त्रिशला की व्यथा मूर्त हो गई। लगा कि सखी को वह नहीं झांक रही है, उसकी व्यथा झांक रही है। वह नहीं बोल रही है, उसकी व्यथा बोल रही है। व्यथा की प्रखरता ने सखी को भी व्यथित कर दिया। उसने महाराज सिद्धार्थ को इस वृत्त की सूचना दी। वह भी व्यथित हो गया। जैसे-जैसे वृत्त फैलता गया वैसे-वैसे व्यथा भी फैलती गयी । नाटक बंद हो गए। पूरा राज्य-परिवार शोक-मग्न हो गया। सूर्य उगता-उगता जैसे कुछ क्षणों के लिए थम गया।
महावीर ने बाहर की घटनाओं को देखा। वे आश्चर्य-चकित रह गए। उन्होंने सोचा -- कभी-कभी अच्छा करना भी बुरा हो जाता है। मैंने माता के सुख के लिए हिलना-डुलना बन्द किया। वह दु:ख के लिए हो गया। स्वाभाविक को अस्वाभाविक प्रयत्न मान्य नहीं है। महावीर ने फिर हलन-चलन शुरू की। माता की आंशका दूर हो गई। समूचा परिवार व्यथा के ज्वार से मुक्त हो गया। वाद्यों के मंगल-घोष से आकाश गूंज उठा। महावीर माता-पिता के प्रेम से अभिभूत हो गए। उन्होंने प्रतिज्ञा की - 'मैं माता
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