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२०६ / श्रमण महावीर
अस्तित्व की ओर है। महावीर ने कहा - १
'जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है।' 'जिस पर तू शासन करना चाहता है वह तू ही है।' 'जिसे तू परितप्त करना चाहता है, वह तू ही है।' 'जिसे तू दास बनाना चाहता है, वह तू ही है।' 'जिसे तू उपद्रुत करना चाहता है, वह तू ही है।'
इस पद-पद्धति को पढ़कर अद्वैतवादी कहेगा - महावीर अद्वैतवादी थे। जैन दर्शन का विद्यार्थी उलझ जाएगा कि महावीर द्वैतवादी थे, फिर उन्होंने अद्वैत की भाषा का प्रयोग कैसे किया? महावीर इन दोनों से ही दूर हैं । वे अस्तित्ववादी हैं - अद्वैत और द्वैत - दोनों अस्तित्व से निकलते हैं इसलिए अस्तित्ववादी कभी अद्वैत की भाषा में बोल जाता है और कभी द्वैत की भाषा में। 'होने' की अनुभूति में जो एकात्मकता है, वह 'कुछ होने की अनुभूति में नहीं हो सकती। कुछ होने' का अर्थ भेदानुभूति है। उसमें हिंसा का संस्कार क्षीण नहीं होता। अपनी हिंसा कोई नहीं चाहता । यदि कोई आत्मा मुझसे भिन्न नहीं है तो मैं किसे मारूंगा? अस्तित्व के धरातल पर यह अभेदानुभूति है। यही है अहिंसा। आत्मा ही हिंसा है और आत्मा ही अहिंसा है। आत्मा-आत्मा के बीच भेदानुभूति है, वह हिंसा है और आत्मा-आत्मा के बीच अभेदानुभूति है, वह अहिंसा है। जहां केवल 'होना' है, वहां भेद और अभेद की भाषा नहीं है। यह भाषा उस जगत् की है, जहां, कुछ होना' ही सत्य है। व्यक्तित्व के जगत् में महावीर का तर्क दूसरा है। वे कहते हैं - 'किसी प्राणी को मत मारो।'
महावीर का युग यज्ञ का युग था। उस युग के ब्राह्मण यज्ञ की हिंसा का मुक्त समर्थन करते थे। उनका सिद्धान्त था कि धर्म के लिए किया जाने वाला प्राणी का हनन निर्दोष है। इस प्रकार की हिंसा का उन्मूलन करने के लिए भगवान् ने आत्म-तुला की भाषा का प्रयोग किया। भगवान् ने उनसे कहा - 'मैं आप सबसे पूछना चाहता हूं कि आपको सुख अप्रिय है या दु:ख अप्रिय है?'
उन्होंने नहीं कहा कि सुख अप्रिय है। यह प्रत्यक्ष विरुद्ध बात वे कैसे कहते? उन्होंने कहा - 'हमें दुःख अप्रिय है। तब भगवान् ने कहा - 'जैसे आपको दुःख अप्रिय है वैसे ही दूसरे प्राणियों को दुःख अप्रिय है। प्राण का हरण दुनिया में सबसे बड़ा भय है। फिर आप लोग हिंसा को अहिंसा का जामा कैसे पहनाते हैं? धर्म के नाम पर हिंसा का समर्थन कैसे करते हैं?'
__इस अद्वैत की भाषा में मारने वाला व्यक्ति मारे जाने वाले व्यक्ति से भिन्न है। व्यक्तित्व की भिन्नता होने पर भी दोनों में एक धर्म समान है। वह है दुःख की अप्रियता। इस समान धर्म की अनुभूति होने पर हिंसा की वृत्ति शांत हो जाती है। १. आयारो, ५।१०१ ।
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