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सर्वजन हिताय : सर्वजन सुखाय / २०७
पुराने जमाने में पंचायत समाज की प्रभावी संस्था थी । पंच का फैसला न्यायाधीश के फैसले की भांति मान्य होता था । एक व्यक्ति पर अपने पड़ौसी की भैंस चुराने का आरोप आया। मामला पंचों तक गया। पंच न्याय करने बैठे। अभियुक्त को सामने बैठा दिया । वह अभियोग स्वीकार नहीं कर रहा था। पंचों ने न्याय करने का निर्णय लिया । उन्होंने एक तवा गर्म करवाया । वह अग्निमय हो गया। पंचों ने निर्णय सुनाया कि यह गर्म तवा इसके हाथ पर रखा जाएगा। इसका हाथ नहीं जलेगा तो यह चोरी के आरोप से मुक्त समझा जाएगा और यदि इसका हाथ जल गया तो इस पर चोरी का आरोप सिद्ध हो जागा । अभियुक्त ने इस निर्णय को स्वीकार कर लिया।
एक पंच उठा। संडासी से तवा पकड़ अभियुक्त के हाथ पर रखने लगा । उसने हाथ खींच लिया। पंच ने उसे डांटा। वह बोला- 'डांटने की कोई आवश्यकता नहीं है। पंच का हाथ तो मेरा हाथ है। पंच की संडासी तो मेरी संडासी है। पंच महोदय ! आप तो चोर नहीं हैं? आप इस तवे को हाथ से उठाकर दीजिए, मेरा हाथ इसे झेलने को तैयार है । '
इस समानता के सूत्र ने निर्णय का मार्ग बदल दिया। पंच चुपचाप अपने आसन पर बैठ गया ।
भगवान् महावीर ने इस समानता के सूत्र द्वारा हजारों-हजारों व्यक्तियों को जागृत
किया ।
भगवान् बुद्ध ने 'बहुजनहिताय' का उद्घोष किया। भगवान् महावीर ने 'सर्वजीवहिताय' की उद्घोषणा की।
'भंते! शाश्वत धर्म क्या है?"
गौतम ने पूछा भगवान् ने कहा – 'अहिंसा ।'
'भंते! अहिंसा किनकी रक्षा के लिए है?"
'सब जीवों की रक्षा के लिए है ।'
'भंते! थोड़े जीवों की हिंसा द्वारा बहुतों की रक्षा संभव है। पर सबकी रक्षा कैसे सम्भव है?'
'अहिंसा के घड़े में शत्रुता का एक भी छेद नहीं रह सकता। वह पूर्ण निश्छिद्र होकर ही समत्व के जल को धारण कर सकता है।'
'भंते! अहिंसा का संदेश किन तक पहुंचाएं?' 'हर व्यक्ति तक पहुंचाओ, फिर वह जागृत हो या सुप्त,
अस्तित्व के पास उपस्थित हो या अनुपस्थित, अस्तित्व की दिशा में गतिमान् हो या गतिशून्य, संग्रही हो या असंग्रही,
बंधन खोज रहा हो या विमोचन ।
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