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सर्वजन हिताय : सर्वजन सुखाय
भिन्न-भिन्न वस्तुओं को देखने के लिए भिन्न-भिन्न आंखों की जरूरत नहीं है - इस वाक्य की अभिधा से असहमति नहीं है तो इसकी व्यंजना से पूर्ण सहमति भी नहीं है।
गुरु ने शिष्य से पूछा - 'देखता कौन है?' शिष्य ने कहा – 'आंख।' गुरु - 'क्या अंधकार में आंख देख सकती है?' शिष्य - 'प्रकाश और आंख दोनों मिलकर देखते हैं।'
गुरु - 'आंख भी है और प्रकाश भी है पर आदमी अन्यमनस्क है तो क्या वह देखता है?'
शिष्य - 'मैं अपनी बात में थोड़ा संशोधन करना चाहता हूं। मन, प्रकाश और आंख- तीनों मिलकर देखते हैं।'
गुरु – 'एक बच्चे ने आग को देखा और उसमें हाथ डाल दिया। क्या उसने आग को नहीं देखा?'
शिष्य - 'बच्चे में बुद्धि का विकास नहीं होता । वास्तव में पूर्ण दर्शन तब होता है जब बुद्धि, मन, आंख और प्रकाश - ये चारों एक साथ होते हैं।'
गुरु - 'एक बुद्धिमान आदमी को मैंने जुआ खेलते देखा है। क्या वह देखता है?'
शिष्य - 'नहीं, सही अर्थ में वही देखता है, जिसकी बुद्धि पर अस्तित्व का वरदहस्त होता है।'
व्यक्ति के दो रूप होते हैं - व्यक्तित्व और अस्तित्व। अस्तित्व का अर्थ है 'होना' और व्यक्तित्व का अर्थ है 'कुछ होना।' हम नाम-रूप आदि को देखते हैं, तब हमें व्यक्तित्व का दर्शन होता है। हम चेतना के जागरण को देखते हैं तब हमें व्यक्तित्व की पृष्ठभूमि में क्रियाशील अस्तित्व का दर्शन होता है।
महावीर के व्यक्तित्व का अस्तित्व पर अधिकार होता तो उनकी वाणी में मृदुता और हृदय में क्रूरता होती। उनकी वाणी और हृदय- दोनों में मृदुता का अतल प्रवाह है। इससे प्रतीत होता है कि उनका अस्तित्व व्यक्तित्व पर छाया हुआ था।
व्यक्तित्व के धरातल पर महावीर एक संघ के शास्ता, संघबद्ध धर्म के व्याख्याता और एक पंथ के प्रवर्तक हैं। अस्तित्व के धरातल पर वे केवल 'हैं'। 'होने के सिवाय और कुछ नहीं हैं। वे न संघ के शास्ता हैं और न शासित, न धर्म के व्याख्याता हैं और न श्रोता, न द्वैतवादी हैं और न अद्वैतवादी। द्वैत और अद्वैत व्याख्या और श्रुति, शासन और स्वीकृति - ये सब अस्तित्व की शाखाएं हैं। महावीर की सम्पूर्ण यात्रा व्यक्तित्व से
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