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जीवनवृत्त : कुछ चित्र, कुछ रेखाएं / ७
धार्मिक परम्परा
उस समय भारत के उत्तर-पूर्व में दो मुख्य धार्मिक परम्पराएं चल रही थीं- श्रमण परम्परा और ब्राह्मण परम्परा । सिद्धार्थ और त्रिशला श्रमण परम्परा के अनुयायी थे। वे भगवान् पार्श्व के शिष्यों को अपना धर्माचार्य मानते थे। वर्द्धमान ने जिस परम्परा का उन्नयन किया, उसके संस्कार उन्हें पैतृक विरासत में मिले थे। वे किसी श्रमण केपास गए और धर्म-चर्चा की, इसकी कोई जानकारी प्राप्त नहीं है। उनका ज्ञान बहुत प्रबुद्ध था। वे सत्य और स्वतंत्रता की खोज में अकेले ही घर से निकले थे। कुछ वर्षों तक वे अकेले ही साधना करते रहे। राजनीतिक वातावरण
उन दिनों वज्जि गणतंत्र बहुत शक्तिशाली था। उसकी राजधानी थी वैशाली। उसकी अवस्थिति गंगा के उत्तर, विदेह में थी। वज्जिसंघ में लिच्छवि और विदेह- दोनों शासक सम्मिलित थे। इसके प्रधान शासक लिच्छवि राजा चेटक थे। सिद्धार्थ वज्जि संघ के एक सदस्य-राजा थे । वर्द्धमान गणतंत्र के वातावरण में पले थे। गणतंत्र में सहिष्णुता, वैचारिक उदारता, सापेक्षता, स्वतंत्रता और एक-दूसरे को निकट से समझने की मनोवृत्ति का विकास अत्यन्त आवश्यक होता है । इन विशेषताओं के बिना गणतंत्र सफल नहीं हो सकता । अहिंसा और स्याद्वाद के बीज वर्द्धमान को राजनीतिक वातावरण में ही प्राप्त हो गए थे। धार्मिक वातावरण में वर्द्धमान ने उन्हें शतशाखी बनाकर स्थायी प्रतिष्ठा दे दी। परिवार
अपने गुणों से प्रख्यात होने वाला उत्तम, पिता के नाम से पहचाना जाने वाला मध्यम, माता के नाम से पहचाना जाने वाला अधम और श्वसुर के नाम से पहचाना जाने वाला अधमाधम होता – यह नीतिसूत्र अनुभव की स्याही से लिखा गया है।
___ महावीर स्वनामधन्य थे। वे अपनी सहज साधनाजनित विशेषता के कारण अनेक नामों से प्रख्यात हुए। उनके गुण-निष्पन्न नाम सात हैं- वर्द्धमान, समन (श्रमण), महावीर', सन्मति, वीर, अतिवीर और ज्ञातपुत्र । बौद्ध साहित्य में उनका नाम नातपुत्त मिलता है।
महावीर के पिता के तीन नाम थे- सिद्धार्थ, श्रेयांस और यशस्वी । उनका गोत्र था - काश्यप।
१. आयारचूला,१५ । २५ । २. आयारचूला,१५।१६ । ३. आयारचूला,१५।१७।
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