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६/श्रमण महावीर
उत्तर अप्राप्त । इस विश्व में यही होता है, समस्याएं रह जाती हैं, समाधान खो जाते हैं।
कुमार के उत्तर सुन अध्यापक के आश्चर्य की सीमा नहीं रही। बहुत पूछने पर यह रहस्य अनावृत हो गया कि वर्द्धमान को जो पढ़ाया जा रहा है वह उन्हें पहले से ही ज्ञात है। अध्यापक के अनुरोध पर वे पहले दिन ही विद्यालय से मुक्त हो गए।
हम वर्तमान को अतीत के आलोक में नहीं पढ़ते तब केवल व्यक्तित्व की व्याख्या करते हैं, उसकी पृष्ठभूमि में विद्यमान अस्तित्व को भुला देते हैं।
हम वर्तमान को भविष्य के आलोक में नहीं पढ़ते तब केवल उत्पत्ति की व्याख्या करते हैं, उसकी निष्पत्ति को भुला देते हैं।
वर्तमान में अतीत के बीज को अंकुरित करने और भविष्य के बीज को बोने की क्षमता है। जो व्यक्ति इन दोनों क्षमताओं को एक साथ देखता है वह व्यक्तित्व और अस्तित्व को तोड़कर नहीं देखता, उत्पत्ति और निष्पत्ति को विभक्त कर नहीं देखता, वह समग्र को समग्र की दृष्टि से देखता है। समग्रता की दृष्टि से देखने वाला आठ वर्ष की आयु में घटित होने वाली घटना का बीज आठ वर्ष की अवधि में नहीं खोजता। उसकी खोज सुदूर अतीत तक पहुंच जाती है। कुमार वर्द्धमान के प्रातिभज्ञान को आनुवंशिकता और मस्तिष्क की क्षमता के आधार पर नहीं समझा जा सकता। उसे अनेक जन्मों की शृंखला में हो रही उत्क्रान्ति के संदर्भ में ही समझा जा सकता है। सन्मति
भगवान् पार्श्व की परम्परा चल रही थी। उनके हजारों शिष्य बृहत्तर भारत और मध्य एशियाई प्रदेशों में विहार कर रहे थे। उनके दो शिष्य क्षत्रियकुंड नगर में आए। एक का नाम था संजय और दूसरे का विजय । वे दोनों चारण-मुनि थे। उन्हें आकाश में उड़ने की शक्ति प्राप्त थी। उनके मन में किसी तत्त्व के विषय में संदेह हो रहा था। वे उसके निवारण का प्रयत्न कर रहे थे, पर वह हो नहीं सका। वे सिद्धार्थ के राज-प्रासाद में आए। शिशु वर्द्धमान को देखा । तत्काल उनका संदेह दूर हो गया। उनका मन पुलकित हो उठा। उन्होंने वर्द्धमान को 'सन्मति' के नाम से संबोधित किया।
प्रश्न का ठीक उत्तर मिलने पर संदेह का निवर्तन हो जाता है। यह संदेह-निवर्तन की साधारण पद्धति है। कभी-कभी इससे भिन्न असाधारण घटना भी घटित होती है। महान् अहिंसक की सन्निधि प्राप्त होने पर जैसे हिंसा का विष अपने आप धुल जाता है, प्रज्ज्वलित वैर मैत्री में बदल जाता है, वैसे ही अन्तर के आलोक से आलोकित आत्मा की सन्निधि प्राप्त होने पर मन के संदेह अपने आप समाधान में बदल जाते हैं। १. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २४६, २४७ । २. उत्तरपुराण, पर्व ७४, श्लोक, २८२, २८३ ।
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