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________________ मुक्त मानस : मुक्त द्वार / १९५ सकता है। किंतु यह भी इतना ही सच है कि वह सम्पूर्ण आकाश को नहीं देख सकता। आकाश उतना ही नहीं है जितना वह देख सकता है और यह भी सच है कि वह आकाश को सीधा नहीं देख सकता, जाली के व्यवधान से देख सकता हैं। ___ भगवान् महावीर ने एक बार गौतम से कहा – 'जब धर्म का द्रष्टा नहीं होता तब धर्म अनुमान की जाली से ढंकी हुई शब्द की खिड़की से झांककर देखा जाता है। उस स्थिति में उसके अनेक मार्ग और अनेक मार्ग-दर्शक हो जाते हैं। गौतम! तुम्हें जो मार्ग मिला है, वह द्रष्टा बनने का मार्ग है। तुम जागरूक रहो और धर्म के द्रष्टा बनो।५। भगवान् महावीर धर्म के द्रष्टा थे। वे अचेतन में अचेतन धर्म को देखते थे और चेतन में चेतन धर्म को। वे यथार्थवादी थे। भय, प्रलोभन या अतिशयोक्तिपूर्ण प्रतिपादन उन्हें प्रिय नहीं था। ___ आचार्य हेमचनद्र ने लिखा है - 'भगवन् ! आपने यथार्थ तत्व का प्रतिपादन किया, इसलिए आपके व्यक्तित्व में वह कौशल प्रकट नहीं हुआ, जो घोड़े के सींग उगाने वाले नव-पंडित के व्यक्तित्व में प्रकट हुआ है।' अनेकांत दृष्टि और यथार्थवाद - ये दोनों साथ-साथ चलते हैं। जो अनेकांत दृष्टि वाला नहीं होता, वह यथार्थवादी नहीं हो सकता और जो यथार्थवादी नहीं होता, वह अनेकांत दृष्टि वाला नहीं हो सकता । भगवान् महावीर में अनेकांत दृष्टि और यथार्थवाददोनों पूर्ण विकसित थे। इसलिए वे सत्य को संघीय क्षितिज के पार भी देखते थे। १. एक बार भगवान् कौशाम्बी से विहार कर राजगृह आए और गुणशीलक चैत्य में ठहरे। गौतम स्वामी भिक्षा के लए नगर में गए। उन्होंने जन-प्रवाद सुना - तुंगिका नगरी के बाहरी भाग में पुष्पवती नाम का चैत्य है। वहां भगवान् पार्श्व के शिष्य आए हुए हैं। कुछ उपासक उनके पास गए और कुछ प्रश्न पूछे। जन-जन के मुंह से यह बात सुन गौतम के मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई । उन्होंने उपासकों से पूछा - 'बताओ, तुमने क्या प्रश्न किए और पार्खापत्यीय श्रमणों ने क्या उत्तर दिए?' 'हमने उनसे पूछा - भन्ते! संयम का क्या फल है? तप का क्या फल है?' पार्खापत्यीय श्रमणों ने उत्तर दिया - 'संयम का फल नए बन्धन का निरोध है । तप का फल पूर्व बंधन का विमोचन है।' 'इस पर हमने पूछा - भन्ते ! संयम का फल नए बंधन का निरोध और तप का फल पूर्व बंधन का विमोचन है तब पिर देवलोक में उत्पन्न होने का हेतु क्या है?' इस प्रश्न के उत्तर में स्थविर कालियपुत्त ने कहा - 'आर्यो! जीव पूर्व तप से १. उत्तरायणाणि १०।३१ : न हु जिणे अज दिस्सई, बहुमए दिस्सई मग्गदेसिए । संपइ नेयाउए पहे, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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