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समता के तीन आयाम / १९३
वे अपने प्राणों की बलि देने को प्रस्तुत हो गए। उनका चित्त ध्यान के प्रकोष्ठ में पहुंच गया। उनका मन सरिता में नौका की भांति तैरने लगा। कष्ट शरीर को होता है। उसकी अनुभूति मन को होती है। दोनों घुले-मिले रहते हैं, तब कष्ट का संवेदन क्षीण हो जाता है। यह है सहिष्णुता - समता के विवेक से पल्लवित, पुष्पित और फलित।।
द्वन्द्व का होना जागतिक नियम है। इसे कोई बदल नहीं सकता । द्वन्द्व की अनुभूति को बदला जा सकता है। यह परिवर्तन द्वन्द्वातीत चेतना की अनुभूति होने पर ही होता है। द्वन्द्व की अनुभूति का मूल राग और द्वेष का द्वन्द्व है। इस द्वन्द्व का अन्त होने पर द्वन्द्वातीत चेतना जागृत होती है। समता आदि-बिन्दु द्वन्द्वातीत चेतना की जागृति का आदि-बिन्दु है। समता का चरम-बिन्दु द्वन्द्वातीत चेतना की पूर्ण जागृति है। इस अवस्था में समता और वीतरागता एक हो जाती है। साधन साध्य में विलीन हो जाता है। वस्तु-जगत् में द्वैत रहता है। किन्तु चेतना के तल पर द्वन्द्व के प्रतिबिम्ब समाप्त हो जाते हैं । विषमता-विहीन समता अपने स्वरूप को खो देता है । न विषमता रहती है और न समता, कोरी चेतना शेष रह जाती है।
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