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१९२ / श्रमण महावीर
मुनि-जीवन ज्ञान और समता की साधना से प्रदीप्त हो उठा। उनके अन्तर् की ज्योति जगमगा उठी।, वे संघ की सीमा से मुक्त हो गए। अब वे अकेले रहकर साधना करने लगे। एक बार वे राजगृह में आए। स्वर्णकार के घर भिक्षा लेने पहुंचे। स्वर्णकार उन्हें देख हर्ष-विभोर हो उठा । वह वंदना कर बोला – 'श्रमण! आप यहीं ठहरें। मैं दो क्षण में यह देखकर आ रहा हूं कि रसोई बनी है या नहीं?' स्वर्णकार भीतर घर में गया। मुनि वहीं खड़े रहे । स्वर्णकार की दुकान में क्रौंच पक्षी का युगल बैठा था। स्वर्णकार के जाते ही वह आगे बढ़ा और दुकान में पड़े स्वर्णयवों को निगल गया।
स्वर्णकार मुनि को घर में ले जाने आया। उसने देखा, स्वर्णयव लुप्त हैं। वह स्तब्ध रह गया। उसके मन में आवेश उतर आया। उसने स्वर्णयवों के विषय में मुनि से पूछा। मुनि मौन रहे । स्वर्णकार का आवेशबढ़ गया। वह बोला - 'श्रमण! मैं अभी आपके सामने स्वर्णयव यहां छोड़कर गया। कुछ ही क्षणों में मैं यहां लौट आया। इस बीच कोई दूसरा व्यक्ति यहां आया नहीं। मेरे स्वर्णयवों के लुप्त होने के उत्तरदायी आपके सिवाय दूसरा कौन हो सकता है?' मुनि अब भी मौन रहे।
स्वर्णकार मुनि से उत्तर चाहता था। मुनि उत्तर दे नहीं रहे थे। उनका मौन स्वर्णकार की आकांक्षा पर चोट करने लगा। उसने आहत स्वर में कहा - 'श्रमण! वे स्वर्णयव मेरे नहीं हैं। वे सम्राट् श्रेणिक के हैं। मैं उनके अन्तःपुर के आभूषण तैयार कर रहा हूं। यदि वे स्वर्णयव नहीं मिलेंगे तो मेरी क्या दशा होगी, क्या आप नहीं जानते?' आप श्रमण हैं। आपने कितना वैभव छोड़ा है! आप मेरे सम्राट के दामाद रहे हैं। अब आप मेरे आराध्य भगवान् महावीर के संघ में दीक्षित हैं। आप अपने त्याग को देखें, सम्राट की ओर देखें, भगवान् की ओर देखें और मेरी ओर देखें । मन से लोभ को निवारें, मेरी वस्तु मुझे लौटा दें। मनुष्य से भूल हो सकती है। आप साधक हैं । अभी सिद्ध नहीं हो। आप से भी भूल हो सकती है। अभी और कोई नहीं जानता। आप जानते हैं या मैं जानता हूं। तीसरा कोई नहीं जानता। आप मेरी बात पर ध्यान दें। मेरी वस्तु मुझे लौटा दें। भूल के लिए प्रायश्चित्त
करें।
स्वर्णकार द्वारा इतना कहने पर भी मुनि का मौन भंग नहीं हुआ। स्वर्णकार ने सोचा, श्रमण का मन ललचा गया है। ये दण्ड के बिना नहीं मानेंगे। उसने रास्ता बन्द कर दिया। वह तत्काल गीला चर्मपट्ट लाया। मुनि का सिर उससे कसकर बांध दिया। वे भूमि पर लुढ़क गए। सूर्य के ताप से चर्मपट्ट और साथ-साथ मुनि का सिर सूखने लगा।
मुनि ने सोचा - इसमें स्वर्णकार का क्या दोष है? वह बेचारा भय से आतंकित है। मैं भी मौन-भंग कर क्या करता? मेरे मौन-भंग का अर्थ होता - क्रौंच-युगल की हत्या। यह चक्रव्यूह किसी की बलि लिए बिना भग्न होने वाला नहीं है। दूसरों के प्राणों की बलि देने का मुझे क्या अधिकार है? मैं अपने प्राणों की बलि दे सकता हूं।
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