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१९० / श्रमण महावीर
आरक्षिक इसके उत्तर की खोज में लग गया। सुदर्शन के पैर आगे बढ़ गए । सुनसान राजपथ ने सुदर्शन के प्रत्येक पद-चाप को ध्यान से सुना। उसमें न कोई धड़कन थी, न आवेग और न विचलन। सुदर्शन राजपथ के कण-कण को ध्यान से देखता जा रहा था पर उसे सर्वत्र दिखाई दे रहा था महावीर का प्रतिबिंब । वह सुन रहा था पग-पग पर महावीर का सिंहनाद ।
राजपथ के आस-पास अर्जुन घूम रहा था। लग रहा था जैसे काल की छाया घूम रही हो। उसने सुदर्शन को आते देखा। उसे लगा जैसे कोई बलि का बकरा आ रहा है। वह सुदर्शन की ओर दौड़ा। भय अभय को परास्त करने के लिए विह्वल हो उठा। श्रद्धा और आवेश के समर की रणभेरी बज चुकी । सुदर्शन ने अपनी तैयारी पूर्ण कर ली। उसने समता की दीक्षा स्वीकार की। वह संकल्प का कवच पहन कायोत्सर्ग की मुद्रा में खड़ा हो गया। उसकी ध्यान - मुद्रा उपसर्ग का अन्त होने से पहले भग्न नहीं होगी, यह उसकी आकृति बता रही थी ।
अर्जुन निकट आते ही गरज उठा - 'तुम कौन हो ? तुम्हारा नाम क्या है? क्या तुम्हारे माता-पिता नहीं है? कोई मित्र और परामर्शक नहीं है? तुम्हें नहीं मालूम है कि यहां आने पर तुम मृत्यु के अतिथि बन जाओगे ? तुम बोल नहीं रहे हो ! बड़े लापरवाह दीख रहे हो ! अब तैयार हो जाओ तुम इस मुद्गरपाणि का प्रसाद पाने के लिए।'
सुदर्शन अपने ध्यान में लीन था । वह न बोला और न प्रकंपित हुआ । अर्जुन का आवेश और अधिक बढ़ गया। उसने मुद्गर को आकाश में उछालने का प्रयत्न किया। पर हाथ उसकी इच्छा को स्वीकार नहीं कर रहे थे। वे जहां थे, वहीं स्तम्भित हो गए। अर्जुन ने अपनी सारी शक्ति लगा दी। पर उसका शरीर उसकी हर इच्छा को अस्वीकार करने लगा। उसका मनोबल टूट गया। आवेश शान्त हो गया ।
अब अर्जुन केवल अर्जुन था । उसका शरीर आवेश में शिथिल हो चुका था । वह अपने को संभाल नहीं सका। वह सुदर्शन के पैरों में लुढ़क गया।
सुदर्शन ने देखा उपसर्ग शान्त हो चुका है। भय की काली घटा बिना बरसे ही फट गयी है। उसने अपनी अर्धोन्मीलित आंखें खोलीं । कायोत्सर्ग संपन्न किया। उसने महावीर की स्मृति के साथ अर्जुन के सिर पर हाथ रखा उसकी मूर्च्छा टूट गई। उसके चिदाकाश में जागृति की पहली किरण प्रकट हुई। उसने जागृति के क्षण में फिर उस प्रश्न को दोहराया -
'तुम कौन हो ?'
'मैं भगवान् महावीर का उपासक हूं।'
'कहां जा रहे हो ?'
'भगवान् महावीर की उपासना करने जा रहा हूं।'
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