________________
'वत्स ! हमने भी सुना है जो तुम कह रहे हो ।'
6
'अब हमारा क्या धर्म है ?"
'हमारा धर्म है भगवान् की सन्निधि में उपस्थित होना । किन्तु... । ' 'अंब - तात ! भय के साम्राज्य में किन्तु का अन्त कभी नहीं होगा ।' 'क्या जीवन का कोई मूल्य नहीं है?"
'धर्म का मूल्य उससे बहुत अधिक है । अल्पमूल्य का बलिदान कर यदि मैं बहुमूल्य को बचा सकूं तो मुझे प्रसन्नता ही होगी?'
'वत्स! अभी मगध सम्राट् श्रेणिक भी भगवान् की सन्निधि में नहीं पहुंचे हैं, तब हमें क्यों इतनी चिन्ता मोल लेनी चाहिए ?'
' यह चिन्ता का प्रश्न नहीं है, यह धर्म का प्रश्न है। यह सत्ता का प्रश्न नहीं है, यह श्रद्धा का प्रश्न है। क्या श्रद्धा के क्षेत्र में मेरा स्थान सम्राट् से अग्रिम पंक्ति में नहीं हो सकता?'
समता के तीन आयाम / १८९
'क्यों नहीं हो सकता ? '
'फिर आप सम्राट् की ओट में मुझे क्यों रोकना चाहते हैं?"
1
'अच्छा वत्स! तुम भगवान् की शरण में जाओ। तुम्हारा कल्याण हो । निर्विघ्न हो तुम्हारा पथ । '
सुदर्शन माता-पिता का आशीर्वाद ले घर से चला। मित्रों ने एक बार फिर रोका और टोका उन सबने, जिन्हें इस बात का पता चला। पर सत्याग्रही के पैर कब रुक सके हैं? उसके पैर जिस दिशा में उठ जाते हैं, वे मंजिल तक पहुंचे बिना रुक नहीं पाते । सुदर्शन अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ा। वह अकेला था। उसके साथ था केवल श्रद्धा का बल । वह प्रतोली-द्वार तक पहुंचा। आरक्षिक ने उसे रोककर पूछा
'कहां जाना चाहते हो ?'
'गुणशीलक चैत्य में।'
'किसलिए?'
'भगवान् महावीर की उपासना के लिए । '
'बहुत अच्छा । किन्तु श्रेष्ठिपुत्र ! इस राजपथ से जाना क्या मौत को निमंत्रण देना नहीं है?"
'हो सकता है, किन्तु मैं मौत को निमंत्रित करने नहीं जा रहा हूं।'
'यह राजपथ राजाज्ञा द्वारा अवरुद्ध है, आपको पता होगा?
'हां, मुझे मालूम है। पर मैं जिस उद्देश्य से जा रहा हूं, वह अबाधित है। जिसका सबको भय है, उससे मैं भयभीत नहीं हूं, फिर यह राजपथ मेरे लिए क्यों अवरुद्ध होगा?'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org