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१८२ / श्रमण महावीर
लुढ़क कर गिर पड़े, मानो बिजली के आघात से रजतगिरि का शिखर लुढ़क पड़ा हो । तीन दिन-रात तुम घोर वेदना को झेलते रहे। वहां से मरकर तुम श्रेणिक के पुत्र और धारिणी देवी के आत्मज बने ।
'मेघ ! जब तुम तिर्यञ्च योनि में थे, सम्यग्दर्शन तुम्हें प्राप्त नहीं था । तब तुमने खरगोश की अनुकम्पा के लिए ढाई दिन तक पैर को अन्तराल में उठाए रखा। उस कष्ट को कष्ट नहीं माना। तुम्हारा कष्ट अहिंसा के प्रवाह में बह गया। अब तुम मनुष्य हो, सम्यग्दर्शन तुम्हें प्राप्त है, ज्योतिशिखा तुम्हारे हाथ में है, फिर अमा की अंधियारी ने कैसे तुम्हारी आंखों पर अधिकार कर लिया? कैसे तुम थोड़े से कष्ट से अधीर हो गए? श्रमणों का चरण-स्पर्श कैसे तुम्हें असह्य हो गया? उनकी किंचित् उपेक्षा कैसे तुम्हारे लिए सिरशूल बन गई? '
मेघकुमार की स्मृति पर भगवान् ने इतना गहरा आघात किया कि उसकी स्मृति का द्वार खुल गया । अतीत के गहरे में उतरकर उसने पंक में खड़े हाथी को देखा और दर्शन की शृंखला में यह भी देखा कि श्वेतहस्ती पैर को अधर में लटकाए खड़ा है। वह स्तब्ध रह गया। उसका मानस- तंत्र मौन, वाणी- तंत्र अवाक् और शरीर-तंत्र निश्चेष्ट हो गया । वह प्रस्तर - प्रतिमा की भांति स्थिर शांत खड़ा रहा। दो क्षण तक सारा वातावरण नीरवता से भर गया। सब दिशाएं मौन के अतल में डूब गईं। सब कुछ शांत, प्रशांत और उपशांत । भगवान् ने मौन - भंग करते हुए कहा - 'बोलो मेघ ! क्या चाहते हो?'
'भंते! आपकी शरण चाहता हूं, और कुछ नहीं चाहता।'
'मूर्च्छा में तो नहीं कह रहे हो ?'
'भंते! प्रत्यक्ष दर्शन के बाद मूर्च्छा कहां ?"
'तो अटल है तुम्हारा निश्चय?'
'भंते! अब टलने को अवकाश ही कहां है? आपने बाहर जाने का दरवाजा ही बंद कर दिया ।'
भगवान् ने मेघ को अर्थभरी दृष्टि से देखा । वह धन्य हो गया। उसकी चेतना अपने अस्तित्व में लौट आई। उसका हृदय कोश शाश्वत ज्योति से जगमगा उठा। वह मन ही मन गुनगुनाने लगा
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'बहुत लोग नहीं जानते
मैं पूरब से आया हूं कि पश्चिम से? दक्षिण से आया हूं या उत्तर से?
१. नायाधम्मकहाओ, १ । १५२ - १५४ ।
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