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________________ चक्षुदान / १८१ तीसरे जन्म में तुम हाथी थे-विशाल और सुन्दर । तुम वैतादय पर्वत की उपत्यका के वन में रहते थे। ग्रीष्म ऋतु का समय था । वृक्षों के संघर्षण से आग उठी। तेज हवा का सहारा पा वह प्रदीप्त हो गई। देखते-देखते पोले पेड़ गिरने लगे। वनांत प्रज्वलित हो उठा। दिशाएं धूमिल हो गईं। चारों ओर अरण्य पशु दौड़ने लगे। उस समय तुम भी अपने यूथ के साथ दौड़े। तुम्हारा यूथ आगे निकल गया। तुम बूढ़े थे, इसलिए पिछड़ गए। दिशामूढ हो दूसरी दिशा में चले गए। तुमने एक सरोवर देखा। पानी पीने के लिए उसमें उतरे। उसमें पानी कम था, पंक अधिक । तुम तीर से आगे चले गए, पानी तक पहुंचे नहीं, बीच में ही पंक में फंस गए। तुमने पानी पीने के लिए सुंड को फैलाया। वह पानी तक नहीं पहुंच सकी। तुमने पंक से निकलने का तीव्र प्रयत्न किया । तुम निकले नहीं, और अधिक फंस गए। उस समय एक युवा हाथी वहां आया। वह तुम्हारे यूथ का था। तुमने उसे दंतप्रहार से व्यथित कर यूथ से निकाला था। तुम्हें देखते ही उसमें क्रोध का उफान आ गया। वह तुम्हें दंत-प्रहार से घायल कर चला गया। तुम एक सप्ताह तक कष्ट से कराहते रहे। वहां से मरकर तुमने गंगा नदी के दक्षिणी कूल पर विन्ध्य पर्वत की तलहटी में फिर हाथी का जन्म लिया वनचरों ने तुम्हारा नाम रखा मेरुप्रभ। 'एक बार वन में अकस्मात् दावानल भड़क उठा। तुम अपने यूथ के साथ वन से भाग गए। दावानल ने तुम्हारे मन में विचित्र-सा कंपन पैदा कर दिया। तुम उस गहरे आघात की स्थिति में स्मृति की गहराई में उतर गए। तुम्हें वह दावानल अनुभव किया हुआ-सा लगा। तुम अनुभव की यात्रा पर निकल गए। आखिर पहुंच गए। पूर्वजन्म की स्मृति हो गई। वैताढ्य के वन का दावानल आंखों के सामने साकार हो गया। 'तुमने अतीत की स्मृति का लाभ उठा एक मंडल बनाया। उसे सर्वथा वनस्पतिविहीन कर दिया। एक बार फिर दावाग्नि से वन जल उठा। पशु पलायन कर उस मंडल में एकत्र होने लगे। तुम भी अपने यूथ के साथ उस मंडल में आ गये। देखते-देखते वह मंडल पशुओं से भर गया। अग्नि के भय से संत्रस्त होकर वे सब वैर-विरोध को भूल गए। समूचा मंडल मैत्री-शिविर जैसा हो गया। उसमें सिंह, हिरण, लोमड़ी और खरगोश - सब एक साथ थे। उसमें पैर रखने को भी स्थान खाली नहीं रहा। 'तुमने खुजलाने को पैर ऊंचा उठाया। उसे नीचे रखते समय पैर के स्थान पर खरगोश को बैठे देखा। तुम्हारे मन में अनुकम्पा की लहर उठी। तुमने अपना पैर बीच में ही रोक लिया। उस अनुकम्पा से तुमने मनुष्य होने की योग्यता अर्जित कर ली। 'दो दिन-रात पूरे बीत गए। तीसरे दिन दावानल शांत हुआ। पशु उस मंडल से बाहर निकल जंगल में जाने लगे। वह खरगोश भी चला गया। तुम्हारा पैर अभी अन्तराल में लटक रहा था। तुमने उसे धरती पर रखना चाहा। तुम तीन दिन से भूखे और प्यासे थे। बूढ़े भी हो चले थे। पैर अकड़ गया था। जैसे ही पैर को नीचे रखने का प्रयत्न किया, तुम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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