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चक्षुदान
भगवान् ज्योतिपुंज थे। उनके सम्पर्क में आ नए-नए दीप प्रज्वलित हो रहे थे और बुझते दीप फिर ज्योति प्राप्त कर रहे थे।
दीप का जलना और बुझना सामान्य प्रकृति है। भगवान् इसे पसन्द नहीं करते थे। उनकी भावना थी कि चेतना का दीप जले, फिर बुझे नहीं । वह सतत जलता रहे और जलते-जलते उस बिन्दु पर पहुंच जाए, जहां बुझने की भाषा ही नहीं है।
__मेघकुमार सम्राट श्रेणिक का पुत्र था। वह भगवान् की सन्निधि में गया। उसकी सुप्त चेतना जाग उठी। उसकी चेतना का प्रवाह ऊर्ध्वमुखी हो गया । ढक्कन से ढका हुआ दीप हजारो-हजारों विवरों से ज्योति विकीर्ण करने लगा। वह सतत प्रज्वलित रहने की दिशा में प्रस्तुत हुआ। हमारी भाषा में मुनि बन गया।
दिन जागृति में बीता। रात नींद में। आंखों में नीदं नहीं आई। वह चेतना के दीप पर छा गई। चक्षु-दीप पर छाने वाली नींद सूर्योदय के साथ टूट जाती है। पर चेतना के दीप पर छा जाने वाली नींद नहीं टूटती है - हजारों-हजारों दिन आने पर भी और हजारों-हजारों सूर्योदय हो जाने पर भी। नींद के क्षणों में मेघकुमार की चेतना का प्रवाह अधोमुखी हो गया। वह भगवान् के पास आया। भगवान् ने देखा, उसका चेतना-दीप बुझ रहा है। भगवान् बोले - मेघ! तुम अपनी जागृत चेतना को लौटाने मेरे पास आए हो। क्यों, यह सही है न?' ___ 'भंते ! कुछ ऐसा ही है।' ___ 'मेघ! तुम्हारी स्मृति खो रही है। तुम हाथी के जन्म में जागृति की दिशा में बढ़े थे और अब मनुष्य होकर, मगध सम्राट् के पुत्र होकर, सुषुप्ति की दिशा में जाना चाहते हो, क्या तुम्हारे लिए उचित होगा?' ।
भगवान् की बात सुन मेघकुमार का मानस आन्दोलित हो गया। वह चित्त की गहराइयों में खो गया। उसे कुछ विलक्षण-सा अनुभव होने लगा। ऐसा होना जरूरी था । उसके मानस को आश्चर्य में डाले बिना, आन्दोलित किए बिना, उसे मोड़ देना संभव नहीं था। चेतना-जागरण के रहस्यों को जानने वाले ऐसा कर व्यक्ति को खोज की यात्रा में प्रस्थित कर देते हैं । मेघकुमार प्रस्तुत को भूल गया। जो बात भगवान् को कहने आया था, वह उसके हाथ से छूट गई। उसके मन में जिज्ञासा के नए अंकुर फूट पड़े। उसकी भीतरी खोज आरम्भ हो गई। उसके मानवीय पर्याय पर हाथी का पर्याय आरोहण कर गया।
'भंते! मैं पिछले जन्म में हाथी था? मेघ ने जिज्ञासा की।' भगवान् ने बताया – 'मेघ, तुम अतीत की दिशा में प्रयाण करो और देखो। इससे
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