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________________ सतत जागरण / १७७ प्रमाद मत करो। भगवान् आश्वासन की भाषा में बोले - गौतम! तुम अधीर क्यों हो रहे हो? तुम चिरकाल से मेरे साथ स्नेह-सूत्र से बंधे हुए हो । चिरकाल से मेरे प्रशंसक हो। चिरकाल से परिचित हो। चिरकाल से प्रेम करते रहे हो। चिरकाल से अनुगमन करते रहे हो। चिरकाल से अनुकूल बरतते रहे हो। 'इससे पहले जन्म में मैं देव था, उस समय तुम मेरे साथ थे। मनुष्य जन्म में भी तुम मेरे साथ हो । मेरा और तुम्हारा संबंध चिरपुराण है। भविष्य में इस देह-मुक्ति के बाद हम दोनों तुल्य होंगे। मेरा और तुम्हारा अर्थ भिन्न नहीं होगा, प्रयोजन भिन्न नहीं होगा, क्षेत्र भिन्न नहीं होगा। हम दोनों में पूर्ण साम्य होगा, कोई भी नानात्व नहीं होगा। यह सब स्वल्प काल में ही घटित होने वाला है। फिर तुम खिन्न क्यों होते हो? तुम जागरूक रहो, पल भर भी प्रमाद मत करो। भगवान् के आश्वासन से गौतम में नव-चेतना का संचार हो गया। वे चिन्ता से मुक्त हो पुनः अप्रमाद के क्षण में आ गए। फिर भी उनके अतल में उभरती जिज्ञासा समाहित नहीं हुई। चेतना के विकास का पथ छोटा और लम्बा क्यों होता है - इस प्रश्न में उनका मन अब भी उलझ रहा था। उन्होंने अपनी उलझन भगवान् के सामने रखी। भगवान् ने उसका समाधान दिया। वह समाधान महान् आत्मा द्वारा दिया हुआ आत्मा के उदय का महान् संदेश है। उसका छोटा-सा चित्र इन रेखाओं में आलेखित होता है - अचेतन जगत् को नियम की शृंखला में बांधा जा सकता है, एक सांचे में ढाला जा सकता है। चेतन जगत् नियमन करने वाला है। उसमें चेतना की स्वतंत्रता है। उसके चैतन्य-विकास के अनन्त स्तर हैं। उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व की असंख्य धाराएं हैं। फिर अचेतन की भांति उसे कैसे किया जा सकता है नियमबद्ध और कैसे दिया जा सकता है उसे ढलने के लिए एक सांचा? जहां आंतरिक परिवर्तन की स्वतंत्रता है, पूर्ण स्वतन्त्रता है, दिशा और गति की स्वतंत्रता है, किसी का हस्तक्षेप नहीं है, वहां मार्ग छोटा और लम्बा होगा ही। यदि ऐसा न हो तो स्वतन्त्रता का अर्थ ही क्या? सबके लिए एक ही गति से चलना अनिवार्य हो तो फिर स्वतन्त्रता और परतंत्रता के बीच भेद-रेखा कहां खींची जाए? भगवान् ने रहस्य को अनावृत करते हुए कहा - 'गौतम! इन नव-दीक्षित श्रमणों का साधना-पथ छोटा नहीं है। ये द्रुतगति से चले। इन्होंने स्नेह-सूत्र को तत्परता से छिन्न कर डाला। इसलिए ये अपने लक्ष्य पर जल्दी पहुंच गए। १. उत्तरज्झयणाणि १०।३४ : तिण्णो हु सि अण्णवं महं, किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ। अभितुरं पारं गमित्तए, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ २. भगवई १४१७७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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