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________________ १७८ / श्रमण महावीर 'तुम अभी स्नेह-सूत्र को छिन्न नहीं कर पाए हो। तुम्हारी आसक्ति का धागा मेरे शरीर में उलझ रहा है। तुम जानते हो कि स्नेह का बंधन कितना सूक्ष्म और कितना जटिल होता है। काठ को भेद देने वाला मधुकर कमल-कोष में बन्दी बन जाता है। तुम इस बंधन को देखो और देखते रहो । एक क्षण आएगा कि तुम देखोगे अपने में प्रकाश ही प्रकाश । सब कुछ आलोकित हो उठेगा। कितना अद्भुत होगा वह क्षण!' भगवान् की निर्मल वाणी का चिंतन पा गौतम का मन प्रफुल्ल हो उठा। उनके तपःपूत मुख पर प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। आंखों में ज्योति भर गई। वे सर्वात्मना स्वस्थ हो गए। उन्हें स्वप्न के बाद फिर जागृति का अनुभव होने लगा। उन्होंने सोचा - भगवान् ने जो कहा - 'गौतम! पलभर भी प्रमाद मत करो' - इसका रहस्य क्या है? इसका दर्शन क्या है? क्या पलभर का प्रमाद इतना भयानक होता है, जिसके लिए भगवान् को मुझे चेतावनी देनी पड़े? क्या पल-भर का प्रमाद सारे अप्रमाद को लील जाता है? मुझे इस जिज्ञासा का समाधान पाना ही होगा। __गौतम ने अपनी जिज्ञासा भगवान् के सामने रख दी। भगवान् ने पूछा - 'तुमने दीप को देखा है? 'भन्ते! देखा है।' 'दीप जलता है, तब क्या होता है?' 'भन्ते! अंधकार के परमाणु तैजस में बदल जाते हैं। कमरा प्रकाशमय बन जाता 'वह कब तक प्रकाशमय रहता है?' 'भन्ते! तब तक दीप जलता रहे।' 'एक पल के लिए भी दीप बुझ जाए तब क्या होता है?' 'भन्ते! तैजस के परमाणु अंधकार में बदल जाते हैं। कमरा अंधकारमय हो जाता 'क्या यह एक पल में ही घटित हो जाता है?' 'भन्ते! दीप का बुझना और अंधकार का होना एक ही घटना है। इसमें अंतराल नहीं है।' 'गौतम! मैं यही कहता हूं कि जागरण का दीप जिस क्षण बुझता है, उसी क्षण चित्तभूमि में अन्धकार छा जाता है।' 'भन्ते! जागरण के क्षण में क्या होता है?' 'अंधकार प्रकाश में बदल जाता है।' 'भन्ते! क्या मनुष्य का कृत बदलता है?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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