________________
१७६ / श्रमण महावीर
लगे। गौतम ने उन्हें उधर जाने से रोका। भगवान् ने कहा - 'गौतम! इन्हें मत रोको। ये केवली हो चुके हैं।
गौतम का धैर्य विचलित हो गया। वे इस घटना का रहस्य समझ नहीं सके। बोधिदाता अकेवली और बोधि प्राप्त करनेवाला केवली। चिरदीक्षित अकेवली और नवदीक्षित केवली। यह कैसी व्यवस्था? यह कैसा क्रम? गौतम का मानस-सिन्धु विकल्प की ऊर्मियों से आलोड़ित हो गया। उनका विकल्प बोल उठा – 'मैं किसे दोष दूं? मेरे भगवान् ने ईश्वर को नियंता माना नहीं, फिर मैं उस पर पक्षपात का आरोप कैसे लगाऊं? मेरे भगवान् भी मेरे आंतरिक परिवर्तन के नियंता नहीं हैं, इस प्रकार वे भी पक्षपात के आरोप से बच जाते हैं। अपने भाग्य का नियंता स्वयं मैं हूं। अपने प्रति पक्ष या प्रतिपक्ष का प्रश्न ही नहीं उठता। मेरे भगवान् ने व्यक्ति को असीम स्वतंत्रता क्या दी है, एक अबूझ पहेली उसके सामने रख दी है। उसे सुलझाने में वह इतना उलझ जाता है कि न किसी दूसरे पर पक्षपात का आरोप लगा पाता है और न किसी से कोई याचना कर पाता है। यह मेरा अयाचक व्यक्तित्व आज मेरे लिए समस्या बन रहा है।'
'मेरे देव! हम सब एक ही साधना-पथ पर चल रहे हैं। फिर मेरे शिष्यों का मार्ग इतना छोटा और मेरा मार्ग न जाने कितना लम्बा है?'
महावीर ने गौतम के मर्माहत अन्तस्तल को देखा और देखा कि उसकी मनोव्यथा पिघल-पिघलकर बाहर आ रही है। भगवान् ने गौतम को सम्बोधित कर कहा - 'क्या कर रहे हो?'
'भन्ते! आत्म-विश्लेषण कर रहा हूं।' 'मेरे दर्शन में दोष देख रहे हो या अपनी गति में?'
'भन्ते! दूसरे में दोष देखने की आपकी अनुमति नहीं है, इसलिए अपनी गति का ही विश्लेषण कर रहा हूं।'
'तुम जानते हो हर व्यक्ति अज्ञान और मोह के महासागर के इस तट पर खड़ा है? 'भन्ते! जानता हूं।' 'तुमने उस तट पर जाने का संकल्प किया है, यह स्मृति में है न?' 'भन्ते ! है।' 'फिर उलझन क्या है?' 'भंते ! उलझन यही है कि उस तट पर पहुंच नहीं पा रहा हूं।' भगवान् ने गौतम के पराक्रम को प्रदीप्त करते हुए कहा -
'तुम उस महासागर को बहुत पार कर चुके हो। अब तट पर आकर तुम्हारे पैर क्यों अलसा रहे है? त्वरा करो पार पहुंचने के लिए गौतम! पल भर भी १. उत्तराध्ययन, सुखबोधा, वृत्ति पत्र १५५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org