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सतत जागरण / १७५
अपने मौलिक देवरूप में उपस्थित हो वहां से चला गया। प्रमाद अप्रमाद से पराजित हो
गया।
भगवान् महावीर चंपा में आए ! कामदेव भगवान् के पास आया। भगवान् ने कहा - 'कामदेव ! विगत रात्रि में तुमने धर्म- जागरिका की ?"
'भन्ते ! की । '
'तुम्हें विचलित करने का प्रयत्न हुआ ?' 'भन्ते ! हुआ।'
'बहुत अच्छा हुआ, तुम कसौटी पर खरे उतरे । '
' 'भन्ते ! यह आपकी धर्म- जागरिका का ही प्रभाव है । '
भगवान् ने श्रमण- श्रमणियों को आमंत्रित कर कहा 'आर्यो ! कामदेव गृहवासी है, फिर भी इसने अपूर्व जागरूकता का परिचय दिया है, दैविक उपसर्गों को अपूर्व समता से सहा है। इसका जीवन धन्य हो गया है। तुम मुनि हो। इसलिए तुम्हारी धर्मजागरिका, समता, सहिष्णुता और ध्यान की अप्रकम्पता इससे अनुत्तर होनी चाहिए । ३
अप्रमाद शाश्वत - प्रकाशी दीप है। उससे हजारों-हजारों दीप जल उठते हैं । हर व्यक्ति अपने भीतर में दीप है। उस पर प्रमाद का ढक्कन पड़ा है। उसे हटाने का उपाय जान लिया, वह जगमगा उठा। वह आलोक से भर गया । आलोक बाहर से नहीं आता । वह भीतर में है। बाहर से कुछ भी नहीं लेना है। हम भीतर से पूर्ण हैं। हमारी अपूर्णता बाहर में ही प्रकट हो रही है। प्रमाद का ढक्कन हट जाए, फिर भीतर और बाहर - दोनों आलोकित हो उठते हैं ।
गौतम पृष्ठचंपा से विहार कर भगवान् के पास आ रहे थे। पृष्ठचंपा के राजर्षि शाल और गालि उनके साथ थे । भगवान् के समवसरण में बैठने की व्यवस्था होती है । सब श्रोता अपनी-अपनी परिषद् में बैठते हैं। शाल और गागलि केवली -परिषद् की ओर जाने लगे । गौतम ने उन्हें उधर जाने से रोका। भगवान् ने कहा गौतम ! इन्हें मत रोको। ये केवली हो चुके हैं।
गौतम आश्चर्यचकित रह गए- 'मेरे नव-दीक्षित शिष्य केवली और मैं अकेवली । यह क्या? गौतम उदास हो गए। प्रमाद की तमिस्रा सघन हो गई ।
कुछ दिनों बाद गौतम अष्टापद की यात्रा पर गए । कोडिन्न, दिन्न और शैवाल तीनों तापस अपने शिष्यों के साथ उस पर चढ़ रहे थे । वे गौतम से प्रभावित होकर उनके शिष्य हो गए। गौतम उन्हें साथ लेकर भगवान् के पास आए। वे केवली - परिषद् में जाने
१. उवासगदसाओ, २।१८-४० ।
२. तीर्थंकर काल का अठारहवां वर्ष ।
३. उवासगदसाओ २ । ४५, ४६ ।
४. उत्तराध्ययन, सुखबोधा वृत्ति, पत्र १५४ ।
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