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________________ १७४ / श्रमण महावीर है - 'सव्वओ पमत्तस्स भयं ' - प्रमत्त को सब ओर से भय है।' सव्वओ अप्पमत्तस्स णत्थि भयं' - 'अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं है । " एक बार भगवान् ने 'आर्यों! आओ', कहकर गौतम और श्रमणों को आमंत्रित किया। सभी श्रमण भगवान् के पास आए। भगवान् ने उनसे पूछा - 'आयुष्मान् श्रमणो ! जीव किससे डरते हैं?" गौतम बोले 'भगवान्! हम नहीं समझ पाए इस प्रश्न का आशय । भगवान् को कष्ट न हो तो आप ही इसका आशय हमें समझाएं। हम सब जानने उत्सुक हैं । ' 'आर्यो! जीव दुःख से डरते हैं।' 'भन्ते ! दुःख का कर्ता कौन है ?" 'जीव ।' 'भन्ते ! दुःख का हेतु क्या है ? ' 'प्रमाद ।' भन्ते ! दुःख का अन्त कौन करता है ? 'जीव ।' 'भन्ते !' दुःख के अन्त का हेतु क्या है? " 'अप्रमाद। १२ इस प्रसंग में भगवान् ने एक गम्भीर सत्य का उद्घाटन किया। भगवान् कह रहे हैं कि भय और दुःख शाश्वत नहीं हैं। वे मनुष्य द्वारा कृत हैं। प्रमाद का क्षण ही भय की अनुभूति का क्षण है और प्रमाद का क्षण ही दुःख की अनुभूति का क्षण है। अप्रमत्त मनुष्य को न भय की अनुभूति होती है और न दुःख की । कामदेव अपने उपासना - गृह में शील और ध्यान की आराधना कर रहा था । पूर्वरात्रि का समय था । उसके सामने अकस्मात् पिशाच की डरावनी आकृति उपस्थित हो गई। वह कर्कश ध्वनि में बोली- 'कामदेव ! इस शील और ध्यान के पाखण्ड को छोड़ दो । यदि नहीं छोड़ोगे तो तलवार से तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े कर डालूंगा ।' कामदेव अप्रमाद के क्षण का अनुभव कर रहा था। उसके मन में न भय आया, न कम्पन और न दुःख । । पिशाच को अपने प्रयत्न की व्यर्थता का अनुभव हुआ। वह खिसिया गया । उसने विशाल हाथी का रूप बना कामदेव को फिर विचलित करने की चेष्टा की। उसे गेंद की भांति आकाश में उछाला। नीचे गिरने पर पैरों से रौंदा। पर उसका ध्यान भंग नहीं कर सका। पिशाच अब पूरा सठिया गया। उसने भयंकर सर्प का रूप धारण किया। कामदेव के शरीर को डंक मार-मारकर बींध डाला। पर उसे भयभीत नहीं कर सका। आखिर वह १. आयारो, ३ । ७५ । २. ठाणं, ३ । ३३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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