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सतत जागरण / १७३
दिया। वह सप्ताह पूरा होते-होते मर गई।
___ भगवान् महावीर राजगृह आए। भगवान् ने गौतम से कहा - 'उपासक महाशतक ने अपनी पत्नी के लिए अप्रिय शब्दों का प्रयोग किया है। तुम जाओ और उससे कहोसमत्व की साधना में तन्मय उपासक के लिए अप्रिय शब्दों का प्रयोग करना उचित नहीं है। इसलिए तुम उसका प्रायश्चित्त करो।'
गौतम महाशतक के पास गए। भगवान् का संदेश उसे बताया। उसे अपने प्रमाद का अनुभव हुआ। उसने प्रायश्चित्त किया। अप्रामद की ज्योति फिर प्रज्वलित हो गई।
आत्मा की विस्मृति के क्षण दुर्घटना के क्षण होते हैं। मानवीय जीवन में जितनी दुर्घटनाएं घटित होती हैं, वे सब इन्हीं क्षणों में होती हैं।
एक बार सम्राट् श्रेणिक का अन्तःपुर अविश्वास की आग से धधक उठा। सम्राट को महारानी चेलना के चरित्र पर सन्देह हो गया। उसने क्रोध में अभिभूत होकर अभयकुमार को अन्त:पुर जलाने का आदेश दे दिया। सम्राट् निर्मम आदेश देकर भगवान् महावीर के समवसरण में चला गया।
भगवान् ने उसके प्रमाद को देखा। भगवान् ने परिषद् के बीच कहा - 'संदेह बहुत बड़ा आवर्त है। उसमें फंसने वाली कोई भी नौका सुरक्षित नहीं रह पाती। आज श्रेणिक की नौका संदेह के आवर्त में फंस गई है। उसे चेलना के सतीत्व पर संदेह हो गया है। मैं देखता हूं कि कितना निर्मल, कितना अवदात और कितना उज्ज्वल चरित्र है चेलना का। फिर भी सन्देह का राहु उसे ग्रसने का प्रयास कर रहा है।'
सम्राट् की निद्रा भंग हो गई। आंखें खुल गई। उसे अपने प्रमाद पर अनुताप हुआ। वह तत्काल राज-प्रासाद पहुंचा। अन्तःपुर का वैश्वानर अप्रमाद के जल से शांत हो गया। सम्राट् धन्य हो गया।
आत्मा की स्मृति के क्षण जीवन की सार्थकता के क्षण होते हैं। मानवीय जीवन में जितनी सार्थकताएं निष्पन्न होती हैं, वे सब इन्हीं क्षणों में होती हैं।
भगवान् ने ध्यान के क्षणों में अनुभव किया कि आत्मा सूर्य की भांति प्रकाशमय है, चैतन्यमय है। उसमें न जीवन है और न मृत्यु । न जीवन की आकांक्षा है और न मृत्यु का भय । देह और प्राण का योग मिलता है, आत्मा देही के रूप में प्रकट हो जाती है, जीवित हो जाती है। देह और प्राण का सम्बन्ध टूटता है, आत्मा देह से छूट जाती है, मर जाती है।
आत्मा देह के होने पर भी रहती है और उसके छूट जाने पर भी रहती है। फिर जीवन की आकांक्षा और मृत्यु का भय क्यों होता है? भगवान् ने इस रहस्य को देखा और बताया कि आत्मा में आकांक्षा नहीं है। उसकी विस्मृति ही आकांक्षा है। आत्मा में भय नहीं है। उसकी विस्मृति ही भय है। भगवान् की यह ध्वनि आज भी प्रतिध्वनित हो रही १. तीर्थंकर काल का दसवां वर्ष । २. उवासगदसाओ,८।४१-५० ।
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