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________________ १७२ / श्रमण महावीर ___ 'भन्ते! क्या भगवान् ने सत्य बात कहने वाले के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया 'नहीं, सर्वथा नहीं।' 'भन्ते ! यदि भगवान् ने सत्य बात कहने वाले के लिए प्रायश्चित्त का विधान नहीं किया है तो आप ही प्रायश्चित्त करें।' आनन्द की यह बात सुन गौतम के मन में संदेह उत्पन्न हो गया। वे वहां से प्रस्थान कर भगवान् महावीर के पास गए। सारी घटना भगवान् के सामने रखकर पूछा - 'भन्ते! प्रायश्चित्त आनन्द को करना होगा या मुझे?' भगवान् ने कहा - 'आनन्द ने जो कहा है, वह जागरण के क्षण में कहा है। वह सही है। उसे प्रायश्चित्त करने की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रमाद तुमने किया है। तुमने जो कहा, वह सही नहीं है, इसलिए तुम ही प्रायश्चित्त करो। आनन्द के पास जाओ, उसकी सत्यता को समर्थन दो और क्षमायाचना करो।' गौतम तत्काल आनन्द के उपासना-गृह में पहुंचे। भगवान् के प्रधान शिष्य का आनन्द के पास जाना, उसके ज्ञान का समर्थन करना, अपने प्रमाद का प्रायश्चित्त करना और क्षमा मांगना - व्यक्ति-निर्माण की दिशा में कितना अद्भुत प्रयोग है। भगवान् जानते थे कि असत्य के समर्थन से गौतम की प्रतिष्ठा सुरक्षित नहीं रह सकती। सत्यवादी आनन्द को झुठलाकर यदि गौतम की प्रतिष्ठा को बचाने का यत्न किया जाता तो गौतम का अहं अमर हो जाता, उनकी आत्मा मर जाती। आत्मा का हनन भगवान् को क्षण भर के लिए भी इष्ट नहीं था। फिर वे क्या करते – गौतम की आत्मा को बचाते या उनके अहं को? महावीर के धर्म का पहला पाठ है - जागरण और अंतिम पाठ है - जागरण । बीच का कोई भी पाठ जागरण की भाषा से शून्य नहीं है। जहां मूर्छा आई वहां महावीर का धर्म विदा हो गया। मूर्छा और उनका धर्म - दोनों एक साथ नहीं चल सकते। ___ महाशतक उपसना-गृह में धर्म की आराधना कर रहा था। उसकी पत्नी रेवती बहुत निर्दय थी। उसने महाशतक को विचलित करने का प्रयत्न किया। उसकी ध्यानधारा विच्छिन्न नहीं हुई। उसका साधना क्रम अविचल रहा। कुछ दिन बाद रेवती ने फिर वैसा प्रयत्न किया। इस बार महाशतक क्रुद्ध हो गया। उसने रेवती की भर्त्सना की। क्रोध के आवेश में कहा - 'रेवती! तुम इसी सप्ताह विशूचिका से पीड़ित होकर मर जाओगी। मृत्यु के पश्चात् तुम नरक में जन्म लोगी।' रेवती भयभीत हो गई। वह रोग, मृत्यु और नरक का नाम सुन घबरा गई। शब्दसंसार में ये तीनों शब्द सर्वाधिक अप्रिय हैं। महशतक ने एक साथ इन तीनों का प्रयोग कर १. उवासगदसाओ, १।७९-८२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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