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सतत जागरण
अनुरक्ति की आंख से गुण दिखता है। विरक्ति की आंख से दोष दिखता है। मध्यस्थता की आंख से गुण और दोष – दोनों दिखते हैं । भगवान् महावीर की साधना अनुराग और विराग के अंचलों से अतीत थी। वे जागृति के उस बिन्दु पर पहुंच गए थे कि जहां पहुंचने पर कोई व्यक्ति प्रिय या अप्रिय नहीं रहता। वहां वांछनीय होता है व्यक्ति का जागृत होना और अवांछनीय होता है व्यक्ति का मूर्च्छित होना। भगवान् का संयम है जागरण । भगवान् की साधना है जागरण । भगवान् का ध्यान है जागरण ।
भगवान् ईश्वर नहीं थे। वे वैसे ही शरीरधारी मनुष्य थे जैसे उस युग के दूसरे मनुष्य थे। वे किसी के भाग्य-निर्माता नहीं थे। न उनमें सृष्टि के सर्जन और प्रलय की शक्ति थी। वे करने, नहीं करने और अन्यथा करने में समर्थ ईश्वर नहीं थे। वे किसी ईश्वरीय सत्ता के प्रति नत-मस्तक नहीं थे, जो मनुष्य के भाग्य की डोर अपने हाथ में थामे हुए हो, उनका ईश्वर मनुष्य से भिन्न नहीं था। उनका ईश्वर आत्मा से भिन्न नहीं था। हर आत्मा उनका परमात्मा है। हर आत्मा उनका ईश्वर है।।
आत्मा की विस्मृति होना प्रमाद है, निद्रा है। आत्मा की स्मृति होना अप्रमाद है, जागरण है। आत्मा की सतत स्मृति होना परमात्मा होना है, ईश्वर होना है।
। भगवान् महावीर ने आत्मा को परमात्मा होने की दिशा दी, ईश्वर होने के रहस्य का उद्घाटन किया। यह उनकी बहुत बड़ी देन है। भगवान् स्वयं सतत जागरूक रहे, दूसरों की जागृति का समर्थन और मूर्छा का विखंडन करते रहे। उनकी वह प्रक्रिया सब पर समान रूप से चलती रही।
गौतम भगवान् के प्रथम शिष्य थे। भगवान् की अनेकान्त-दृष्टि के महान् प्रवक्ता और महान् भाष्यकार । एक दिन उन्हें पता चला कि उपासक आनन्द समाधि-मरण की आराधना कर रहा है। वे आनन्द के उपासना-गृह में गए। आनन्द ने उनका अभिवादन किया। धर्मचर्चा के प्रसंग में आनन्द ने कहा – 'भंते ! भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित अप्रमाद की साधना से मुझे विशाल अवधिज्ञान (प्रत्यक्ष ज्ञान) प्राप्त हुआ है।'
गौतम बोले – 'आनन्द! गृहस्थ को प्रत्यक्ष ज्ञान हो सकता है पर इतना विशाल नहीं हो सकता। तुम कहते हो कि इतना विशाल प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ है, इसके लिए तुम प्रायश्चित्त करो।'
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