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४/ श्रमण महावीर
नगर-रक्षक महाराज सिद्धार्थ की आज्ञा को शिरोधार्य कर चला गया।
आज बन्दीगृह खाली हो रहे हैं । बन्दी अपने-अपने घरों को लौट रहें हैं। ऐसा लग रहा है मानो स्वतंत्रता के सेनानी ने जन्म लेते ही पहला प्रहार उन गृहों पर किया है, जहां बुराई को नहीं किन्तु मनुष्य को बन्दी बनाया जाता है।
आज बाजारों में भीड़ उमड़ रही है । अनाज, किराना, घी और तेल-सब सस्ते भावों में बिक रहे हैं। ऐसा लग रहा है मानो असंग्रह के पुरस्कर्ता ने संग्रह को चुनौती दे डाली
__आज नगर के राजपथों, तिराहों, चौराहों और छोटे-बड़े सभी पथों पर जल छिड़का जा रहा है। ऐसा लग रहा है मानों शान्ति का पुरोधा भूमि का ताप हरण कर मानव-संताप के हरण की सूचना दे रहा है।
आज अट्टालिका के हर शिखर पर ध्वजा और पताकाएं फहरा रही हैं। ऐसा लग रहा है मानो जीवन-संग्राम में प्राप्त होने वाली सफलता विजय का उल्लास मना रही है।
आज नगर के कण-कण से सुगंध फूट रही है। सारा नगर गंधगुटिका जैसा प्रतीत हो रहा है। मानो वह बता रहा है कि संयम के संवाहक की दिग्दिगंत में ऐसी ही सुगंध फूटेगी।
नगरवासियों के मन में कुतूहल है। स्थान-स्थान पर एक प्रश्न पूछा जा रहा हैआज यह क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है? क्या कोई नई उपलब्धि हुई है?
इन जिज्ञासाओं के उभरते स्वरों के बीच राज्याधिकारियों ने समूचे नगर में यह सूचना प्रसारित की - 'महाराज सिद्धार्थ के आज पुत्र-रत्न का जन्म हुआ है।' इस संवाद के साथ समूचा नगर हर्षोत्फुल्ल हो गया। नामकरण
समय की सुई अविराम गति से घूम रही है। उसने हर प्राणी को पल-पल के संचय को सींचा है। गर्भ को जन्म, जन्म-प्राप्त को बालक, बालक को युवा, युवा को प्रौढ़, प्रौढ़ को वृद्ध और वृद्ध को मृत्यु की गोद में सुलाकर वह निष्काम कर्म का जीवित उदाहरण प्रस्तुत कर रही है। उसने त्रिशला के शिशु को बढ़ने का अवसर दिया। वह आज बारह दिन का हो रहा है। वह अभी अनाम है। जो इस दुनिया में आता है, वह अनाम ही आता है। पहली पीढ़ी के लोग पहचान के लिए उसमें नाम आरोपित करते हैं। जीव सूक्ष्म है। उसे पहचाना नहीं जा सकता। उसकी पहचान के दो माध्यम हैं - रूप
और नाम । वह रूप को अव्यक्त जगत् से लेकर आता है और नाम व्यक्त जगत् में आने पर १. कल्पसूत्र, सूत्र ९६-१००; कल्पसूत्र टिप्पनक, पृ० १२-१३ ।
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