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१६६ / श्रमण महावीर
का प्रतिपादन है। जीवन केवल नास्तित्व ही नहीं है, वह और भी बहुत है। इसलिए 'जीवन है' और 'जीवन नहीं है' - यह कहना सत्य नहीं है। सत्य यह है कि 'स्यात् जीवन है,' 'स्यात् जीवन नहीं है।'
अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, इस कोण से वह है । नास्तित्व को स्वीकार किए बिना उसका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, इस कोण से वह नहीं है। उसके होने और नहीं होने के क्षण दो नहीं हैं। वह जिस क्षण में है, उसी क्षण में नहीं है और जिस क्षण में नहीं है, उसी क्षण में है। ये दोनों बातें एक साथ कही नहीं जा सकतीं। इस कोण से जीवन अवक्तव्य है।
वेदान्त का मानना है कि ब्रह्म अनिर्वचनीय है । भगवान् बुद्ध की दृष्टि में कुछ तत्व अव्याकृत हैं। भगवान् महावीर की दृष्टि में अणु और आत्मा, सूक्ष्म और स्थूल - सभी वस्तुएं अवक्तव्य हैं किन्तु अवक्तव्य ही नहीं है, वे अखण्ड रूप में अवक्तव्य हैं । खण्ड के कोण से वक्तव्य हैं। हम कहते हैं - आम मीठा है। इसमें आम के मिठास गुण का निर्वचन है। केवल मिठास ही आम नहीं है। उसमें मिठास जैसे अनन्त गुण और पर्याय हैं। कुछ गुण बहुत स्पष्ट हैं । वह पीला है, सुगंधित है, मृदु है। आम मीठा है' - इसमें आम के रस का निर्वचन है किन्तु वर्ण, गन्ध और स्पर्श का निर्वचन नहीं है। हम अखण्ड को खण्ड के कोण से जानते हैं और कहते हैं। उसमें एक गुण मुख्य और शेष सब तिरोहित हो जाते हैं। इस आविर्भाव और तिरोभाव के क्रम में वस्तु के अनन्त खण्ड हो जाते हैं और उनके तल में वह अखंड रहती है। अखण्ड का बोध और वचन सत्य होता ही है। खण्ड का बोध और वचन भी सत्य होता है, यदि उसके साथ 'स्यात्' (अपेक्षा) शब्द का भाव जुड़ा हुआ हो।
एक स्त्री बिलौना कर रही है। एक हाथ आगे आता है दूसरा पीछे चला जाता है। फिर पीछे वाला आगे आता है और आगे वाला पीछे चला जाता है। इस आगे-पीछे के क्रम में नवनीत निकल जाता है। सत्य के नवनीत को पाने का भी यही क्रम है। वस्तु का वर्तमान पर्याय तल पर आता है और शेष पर्याय अतल में चले जाते हैं । फिर दूसरा पर्याय सामने आता है और पहला पर्याय विलीन हो जाता है। इस प्रकार वस्तु का समुद्र पर्याय की ऊर्मियों में स्पंदित होता रहता है। अनेकान्त का आशय है, वस्तु की अखण्ड सत्ता का आकलन - ऊर्मियों और उनके नीचे स्थित समुद्र का बोध । स्याद्वाद का आशय है- एक खण्ड के माध्यम से अखण्ड वस्तु का निर्वचन।
सापेक्षता के सिद्धान्त की स्थापना कर भगवान् ने बौद्धिक अहिंसा का नया आयाम प्रस्तुत किया। उस समय अनेक दार्शनिक तत्व के निर्वाचन में बौद्धिक व्यायाम कर रहे थे। अपने सिद्धान्त की स्थापना और दूसरों के सिद्धान्त की उत्थापना का प्रबल उपक्रम चल रहा था। उस वातावरण में महावीर ने दार्शनिकों से कहा – 'तुम्हारा सिद्धान्त मिथ्या नहीं
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