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सह-अस्तित्व और सापेक्षता / १६३
'तो क्या यह निश्चित है कि आप अपने ही चैतन्य से अस्ति हैं?' 'हां, यह निश्चित है और एकान्ततः निश्चित है कि मैं अपने चैतन्य से ही अस्ति
'भन्ते ! यह भी निश्चित है कि आप दूसरों के चैतन्य से अस्ति नहीं हैं?' ___ 'हां, यह भी एकान्ततः निश्चित है कि मैं दूसरों के चैतन्य से अस्ति नहीं हूं। मैं दूसरों के चैतन्य से अस्ति नहीं हूं इसीलिए अपने चैतन्य से अस्ति हूं। इसीलिए मैं कहता हूं कि मैं अस्ति भी हूं और नास्ति भी हूं। अस्तित्व और नास्तित्व दोनों एक साथ रहते हैं। अस्तित्व-विहीन नास्तित्व और नास्तित्व-विहीन अस्तित्व कहीं भी प्राप्त नहीं होता।'
'भन्ते ! आपका अस्तित्व जैसे अस्तित्व में परिणत होता है, वैसे ही क्या नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है?'
'तुम ठीक कहते हो । मेरे अस्तित्व की धारा अस्तित्व की दिशा में और नास्तित्व की धारा नास्तित्व की दिशा में प्रवाहित होती रहती है।'
'भन्ते! क्या अस्तित्व और नास्तित्व परस्पर-विरोधी नहीं है?'
'नहीं है। दोनों सहभावी हैं। दोनों साथ में रहकर ही वस्तु को वास्तविकता प्रदान करते हैं।
वस्तु के अनन्त पर्याय हैं, अनन्त कोण हैं । वस्तु के धरातल पर अनन्त कोणों का होना ही परम सत्य है। अनन्त कोणों का होना विरोध नहीं है। उनका हमारी बुद्धि की पकड़ में न आना विरोध प्रतीत होता है । तरंगित समुद्र का दर्शन निस्तरंग समुद्र के दर्शन से भिन्न होता है । निस्तरंग होना और तरंगित होना पर्याय है। इन दोनों पर्यायों के नीचे जो अस्तित्व है, वह पहले और पीछे – दोनों क्षणों में होता है – निस्तरंग पर्याय में भी होता है और तरंगित पर्याय में भी होता है।
दूध दही हो गया। दही का पर्याय उत्पन्न हुआ। दूध का पर्याय नष्ट हो गया। इन दोनों पर्यायों के नीचे जो अस्तित्व है वह पहले और पीछे - दोनों क्षणों में होता है - दूधपर्याय में भी होता है और दही-पर्याय में भी होता है।
नैयायिक मानते हैं कि आकाश नित्य है और दीपशिखा अनित्य है । बौद्ध मानते हैं कि दीपशिखा भी अनित्य है और आकाश भी अनित्य है।
दीपशिखा का नित्य होना और आकाश का अनित्य होना नैयायिक की दृष्टि में विरोध है । दीपशिखा का अनित्य और नित्य - दोनों होना बौद्ध की दृष्टि में विरोध है।
महावीर ने सत्य को इन दोनों से भिन्न दृष्टि से देखा है। उन्होंने कहा – दीपशिखा को अनित्य कहा जाता है, वह नित्य भी है और आकाश को नित्य कहा जाता है, वह
१. भगवती, १ । १३३-१३८ ।
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