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सह-अस्तित्व और सापेक्षता
भगवान् महावीर अहिंसा के मन्त्रदाता थे। भगवान् ने सत्य का पहला स्पर्श किया तब उनके हाथ लगी अहिंसा और सत्य का अन्तिम स्पर्श किया तब भी उनके हाथ लगी अहिंसा । चेतना-विकास के आदि-बिन्दु से चरम-बिन्दु तक अहिंसा का ही विस्तार है। वह सत्य की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है।
जीव-जगत् के सम्पर्क में अहिंसा की रेखाएं मैत्री का और तत्व-जगत् के सम्पर्क में वे अनेकांत का चित्र निर्मित करती हैं। भगवान् के मानस से मैत्री की सघन रश्मियां निकलती थीं। वे सिंह को प्रेममय और बकरी को अभय बना देतीं । भगवान् की सन्निधि में दोनों आस-पास बैठ जाते।
सह-अस्तित्व में एक छंद, एक लय और एक स्वर है। उसमें पूर्ण सन्तुलन और संगति है, कहीं भी विसंगति नहीं है।
विसंगति का निर्माण बुद्धि ने किया है । भिन्नता के विरोध का आकार बुद्धि ने किया है। तत्व-युगलों का धारावाही वर्तुल है। उसमें सत्-असत्, नित्य-अनित्य, सदृशविसदृश, वाच्य-अवाच्य जैसे अनन्त युगल हैं। इन युगलों का सह-अस्तित्व ही तत्व है।
भगवान् ने प्रतिपादित किया - कोई भी वस्तु केवल सत् या केवल असत् नहीं है। वह सत् और असत् - इन दोनों धर्मों का सह-अस्तित्व है। कोई भी तत्व केवल नित्य या केवल अनित्य नहीं है। वह नित्य और अनित्य - इन दोनों धर्मों का सह-अस्तित्व है। ____ गौतम भगवान् से बहुत प्रश्न पूछा करते थे। कभी-कभी वे भगवान् के जीवन के बारे में पूछ लेते थे। एक बार उन्होंने पूछा -
'भन्ते! आप अस्ति हैं या नास्ति?' 'मैं अस्ति भी हूं और नास्ति भी हूं।'
'भन्ते! या कहें मैं अस्ति हूं या कहें मैं नास्ति हूं। दोनों एक साथ कैसे हो सकते हैं?'
'यदि दोनों एक साथ न हों तो मैं अस्ति भी नहीं हो सकता और नास्ति भी नहीं हो सकता।'
'भन्ते! यह कैसे?'
'यदि मेरा अस्तित्व मेरे चैतन्य से ही नहीं है, दूसरों के चैतन्य से भी है तो मैं अस्ति नहीं हो सकता । अस्ति हो सकता है समुदाय । और जब मैं अस्ति नहीं हो सकता तब नास्ति भी नहीं हो सकता।'
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