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विरोधाभास का वातायन / १६१
'नहीं मानने का क्या हेतु है?' 'मैं पूछ सकता हूं, मानने का क्या हेतु है?'
'जिन अतिथि-गृहों और आराम-गृहों में बड़े-बड़े विद्वान् परिव्राजक ठहरते हैं, वहां महावीर नहीं ठहरते। विद्वान् परिव्राजक कोई प्रश्न न पूछ लें, इस डर से वे सार्वजनिक आवास-गृहों से दूर रहते है। क्या उन्हें भीरु मानने के लिए यह हेतु पर्याप्त नहीं है?' ___ 'भगवान् अर्थशून्य और बचकाना प्रवृत्ति नहीं करते । वे प्रयोजन की निष्पत्ति देखते हैं, वहां ठहरते हैं, अन्यत्र नहीं ठहरते । प्रयोजन की निष्पत्ति देखते हैं, तब प्रश्न का उत्तर देते हैं, अन्यथा नहीं देते। इसका हेतु भय नहीं, प्रवृत्ति की सार्थकता है।
आजीवक आचार्य महावीर को निरपेक्षदृष्टि से देख रहे थे । फलतः उनकी दृष्टि में महावीर का चित्र विरोधाभास की रेखाओं से बना हुआ था। आर्द्रकुमार महावीर को महावीर की दृष्टि (सापेक्षदृष्टि) से देख रहे थे । फलत: उनकी दृष्टि में प्रतिबिम्बित हो रहा था महावीर का वह चित्र जो निर्मित हो रहा था सामंजस्य की रेखाओं से।
देश, काल और परिस्थिति के वातायन की खिड़की को बन्द कर देखने वाला जीवन में विरोधाभास देखता है। यथार्थ वही देख पाता है, जिसके सामने सापेक्षता की खिड़की खुली होती है।
१. देखे - सूयगडो, २।६
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