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१६० / श्रमण महावीर
पहले वे शिष्य नहीं बनाते थे, अब शिष्यों की भरमार है।
पहले वे तपस्या करते थे, अब प्रतिदिन भोजन करते हैं।
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पहले वे रूखा-सूखा भोजन करते थे, अब सरस भोजन करते हैं । तुम्हारे महावीर का जीवन विरोधाभासों से भरा पड़ा है। इसीलिए मैंने उनका साथ छोड़ दिया । '
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गोशालक ने फिर अपने वक्तव्य की पुष्टि करने का प्रयत्न किया। वे बोले 'आर्द्रकुमार! तुम्हीं बताओं, उनके अतीत और वर्तमान के आचरण में संगति कहां है? संधान कहां है? उनका अतीत का आचरण यदि सत्य था तो वर्तमान का आचरण असत्य है और यदि वर्तमान का आचरण सत्य है तो अतीत का आचरण असत्य था। दोनों में से एक अवश्य ही त्रुटिपूर्ण है। दोनों सही नहीं हो सकते।'
'मेरी दृष्टि में दोनों सही हैं । '
'यह कैसे ?"
'मैं सही कह रहा हूं, आजीवक प्रवर! भगवान् पहले भी अकेले थे, आज भी अकेले हैं, और अनागत में भी अकेले होंगे। भगवान् जब भीतर की यात्रा कर रहे थे, तब बाहर में अकेले थे । उनकी वह यात्रा पूर्ण हो चुकी है। अब वे बाहर की यात्रा कर रहे हैं। इसलिए भीतर में अकेले हैं । आचार्य ! आप जानते ही हैं कि खाली मनुष्य एकान्त में जाता है और भरा मनुष्य भीड़ में बांटने आता है। ये दोनों भिन्न परिस्थितियों के भिन्न परिणाम हैं। इनमें कोई विसंगति नहीं है ।
'भगवान् सत्य के साक्षात्कार की साधना कर रहे थे, तब उनकी वाणी मौन थी । उन्हें सत्य का साक्षात् हो चुका है। अब सत्य उनकी वाणी में आकार ले रहा है । '
भगवान् साधना-काल में अपूर्णता से पूर्णता की ओर प्रयाण कर रहे थे। उस समय कोई उनका शिष्य कैसे बनता? अब वे पूर्णता में उपस्थित हैं। अपूर्ण पूर्ण का अनुगमन करता है, इसमें अनुचित क्या है ?
'भगवान् संस्कारों का प्रक्षालन कर रहे थे, तब तपस्या की गंगा बह रही थी । अब उनके संस्कार धुल चुके हैं। तपस्या की गंगा कृतार्थ हो चुकी है। तपस्या तपस्या के लिए नहीं है । आप ही कहिए - नदी के पार पहुंचने पर नौका की क्या उपयोगिता है ? "
'आजीवक प्रवर! मैं फिर आपसे कहना चाहता हूं कि भगवान् के आचरण प्रयोजन के अनुरूप होते हैं । उनमें कोई विसंगति नहीं है।'
गोशालक ने आर्द्रकुमार के समाधान पर आवरण डालते हुए कहा 'आर्द्रकुमार ! क्या तुम नहीं मानोगे कि महावीर बहुत भीरु हैं?'
'यह मानने का मेरे सामने कोई हेतु नहीं है । '
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