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क्रान्ति का सिंहनाद / १४७
में लग गए।
एक बकरा बलि के लिए ले जाया जा रहा था। मुनि ने उसे देखा। वे उसके सामने जाकर खड़े हो गए। बकरा जैसे ही निकट आया, वैसे ही मुनि नीचे झुके और अपने कान बकरे के मुंह के पास कर दिए। देखते-देखते लोग एकत्र हो गए। कुछ देर बाद मुनि अपनी मूल मुद्रा में खड़े हुए। लोगों ने पूछा - 'महाराज! आप क्या कर रहे थे?'
मुनि बोले - 'बकरे से कुछ बातें कर रहा था।' 'हम आपका वार्तालाप सुनना चाहते हैं, - लोगों ने कहा।'
मुनि बोले - 'मैंने बकरे से पूछा - मौत के मुंह में जाने से पहले तुम कुछ कहना चाहते हो?' उसने कहा - 'यदि मेरी बात जनता के कानों तक पहुंचे तो मैं अवश्य कहना चाहूंगा।' मैंने उसकी भावना को पूरा करने का आश्वासन दिया । तब उसने कहा - 'मेरी बलि इसलिए हो रही है कि मैं स्वर्ग चला जाऊं। तुम इस होता' से कहो कि मुझे स्वर्ग में जाने की आकांक्षा नहीं है। मैं घास-फूस खाकर इस धरती पर संतुष्ट हूं, फिर यह मुझे क्यों असंतोष की ओर ढकेलना चाहता है? यदि यह मुझे स्वर्ग में भेजना चाहता है तो अपने प्रियजनों को क्यों नहीं भेजता? उनकी बलि क्यों नहीं चढ़ाता? 'यह कहकर बकरा मौन हो गया। उपस्थित जनों ! उसका आत्म-निवेदन मैंने आप लोगों तक पहुंचा दिया।
मुनि स्वयं मौन हो गए। उनका स्वर महावीर की दिशा से आने वाले हजारोंहजारों स्वरों के साथ मिलकर इतना मुखर हो गया कि युग-युग तक उसकी गूंज कानों से टकराती रही। बलि की वेदी अहिंसा की छत्रछाया में अपने अस्तित्व की लिपि पढने लगी। ९. युद्ध और अनाक्रमण
यह आकाश एक और अखण्ड है, फिर भी अनादिकाल से मनुष्य घर बनाता आ रहा है और उसकी अखण्डता को खंडित कर सुविधा का अनुभव करता चला आ रहा है। इस विखंडन का प्रयोजन सुविधा है। अखण्ड आकाश में मनुष्य उस सुविधा का अनुभव नहीं करता जिसका विखंडित आकाश में करता है। मनुष्य जाति की एकता में मनुष्य को अहंतप्ति का वह अनुभव नहीं होता जो उसकी अनेकता में होता है। अहंवादी मनुष्य अपने अहं की तृप्ति के लिए मनुष्य-जगत् को अनेक टुकड़ों में बांटता रहा है।
इस विभाजन का एक रूप राष्ट्र है। एक संविधान और एक शासन के अधीन रहने वाला भूखण्ड एक राष्ट्र बन जाता है। दूसरे राष्ट्र से उसकी सीमा अलग हो जाती है। वह सीमा-रेखा भूखण्ड को विभक्त करने के साथ मनुष्य-जाति को भी विभक्त कर देती है। वह विभाजन विरोधी हितों की कल्पना को उभार कर युद्ध को जन्म देता है, मनुष्य को
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