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१४६/ श्रमण महावीर
हिंसक यज्ञ के स्थान पर अहिंसक यज्ञ की प्रतिष्ठा की।
महावीर का दृष्टिकोण सर्वग्राही था। उन्होंने सत्य को अनन्त दृष्टियों से देखा। उनके अनेकान्त-कोष में दूसरों की धर्म-पद्धति का आक्षेप करने वाला एक भी शब्द नहीं है। फिर वे यज्ञ का प्रतिवाद कैसे करते?
उनके सामने प्रतिवाद करने योग्य एक ही वस्तु थी। वह थी हिंसा। हिंसा का उन्होंने सर्वत्र प्रतिवाद किया, भले फिर वह श्रमणों में प्रचलित थी या वैदिकों में । उनकी दृष्टि में श्रमण या वैदिक होने का विशेष अर्थ नहीं था। विशेष अर्थ था अहिंसक या हिंसक होने का। उनके क्षात्र हृदय पर अहिंसा का एकछत्र साम्राज्य था।
उस समय भगवान् के शिष्य अहिंसक यज्ञ का संदेश जनता तक पहुंचा रहे थे। हरिकेश मुनि ने यज्ञवाट में कहा - 'ब्राह्मणों! आपका यज्ञ श्रेष्ठ यज्ञ नहीं है।'
'मुने! आपने यह कैसे कहा कि हमारा यज्ञ श्रेष्ठ नहीं है?' 'जिसमें हिंसा होती है, वह श्रेष्ठ यज्ञ नहीं होता।' 'श्रेष्ठ यज्ञ कैसे हो सकता है, आप बतलाएं, हम जानना चाहते हैं।'
'जिसमें इन्द्रिय और मन का संयम, अहिंसा का आचरण और देह का विसर्जन होता है वह श्रेष्ठ यज्ञ है।'
'क्या आप भी यज्ञ करते हैं?' 'प्रतिदिन करता हूं।'
मुनि की बात सुन रुद्रदेव विस्मय में पड़ गया। उसे इसकी कल्पना नहीं थी,। उसने आश्चर्य के साथ पूछा - 'मुने! तुम्हारी ज्योति कौन-सी है? ज्योतिस्थान कौन-सा है? घी डालने की करछियां कौन-सी हैं? अग्नि को जलाने के कंडे कौन-से हैं? ईधन और शान्ति-पाठ कौन-से हैं और किस होम से तुम ज्योति को हुत करते हो?'
___ इसके उत्तर में मुनि हरिकेश ने अहिंसक यज्ञ की व्याख्या की। वह व्याख्या महावीर से उन्हें प्राप्त थी।
मुनि ने कहा - 'रुद्रदेव! मेरे यज्ञ में तप ज्योति है, चैतन्य ज्योति-स्थान है। मन, वाणी और काया की सत्प्रवृत्ति घी डालने की करछियां हैं। शरीर अग्नि जलाने के कंडे हैं। कर्म ईन्धन है। संयम शान्तिपाठ है। इस प्रकार मैं अहिंसक यज्ञ करता हूं।" __इस संवाद में यज्ञ का प्रतिवाद नहीं किन्तु रूपान्तरण है। इस रूपान्तरण से पशुबलि का आधार हिल गया। महावीर के शिष्य बड़े मार्मिक ढंग से उसका प्रतिवाद करने १. उत्तरण्झयणाणि, १२।४३, ४४ ।
के ते जोई के व ते जोइठाणे, का ते सुया किं व कारिसिंग? । एहा य ते कयरा सन्ति भिक्खू! कयरेण होमेण हुणासि जोइं? ॥ तवो जोई जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्म एहा संजमजोगसन्ती, होमं हुणामी इसिणं पसत्थं ॥
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