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१४४ / श्रमण महावीर
आज भी भाषावाद के लिए महान् चुनौती है। ७. करुणा और शाकाहार
श्रमण आर्द्रकुमार एकदण्डी परिव्राजक के प्रश्नों का उत्तर दे महावीर की दिशा में आगे बढ़ा। इतने में हस्ती-तापस ने उसे रोककर कहा - 'आर्द्रकुमार! तुमने इन परिव्राजकों को निरुत्तर कर बहुत अच्छा काम किया। ये लोग कंद, मूल और फल का भोजन करते हैं । जीवन-निर्वाह के लिए असंख्य जीवों की हत्या करते हैं। हम ऐसा नहीं करते।'
"फिर आप जीवन-निर्वाह कैसे करते हैं?'
'हम बाण से एक हाथी को मार लेते हैं । उससे लम्बे समय तक जीवन-निर्वाह हो जाता है।'
'कंद-मूल के भोजन से इसे अच्छा मानने का आधार क्या है?'
'इसकी अच्छाई का आधार अल्प-बहुत्व की मीमांसा है। एकदण्डी परिव्राजक असंख्य जीवों को मारकर एक दिन भोजन करते हैं, जबकि हम एक जीव को मारकर बहुत दिनों तक भोजन कर लेते हैं। वे बहुत हिंसा करते हैं, हम कम हिंसा करते हैं।'
मांसाहार के समर्थन में दिए जाने वाले इस तर्क की आयु ढाई हजार वर्ष पुरानी तो अवश्य ही है। इस तर्क की शरण गृहस्थ ही नहीं, मांसाहारी संन्यासी भी लेते थे। महावीर ने इस तर्क को अस्वीकार कर मांसाहार का प्रबल विरोध किया।
उस विरोध के पीछे कोई वाद नहीं, किन्तु करुणा का अजस्त्र प्रवाह था। उनके अन्तःकरण में प्राणी-मात्र के प्रति करुणा प्रवाहित हो रही थी। पशु-पक्षी और वनस्पति आदि सूक्ष्म जीवों के साथ उनका उतना ही प्रेम था, जितना की मनुष्य के साथ। उनके प्रेम में किसी भी प्राणी के वध का समर्थन करने का कोई अवकाश नहीं था। उन्हें प्रिय थी अहिंसा और केवल अहिंसा, किन्तु मानव का जगत् उनकी भावना को कैसे स्वीकार कर लेता? आखिर यह जीवन का प्रश्न था। जीना है तो खाना है। खाए बिना जीवन चल नहीं सकता।'अन्नं वै प्राणा:'- अन्न ही प्राण है, यह धारणा समाजमान्य हो चुकी थी। भगवान् ने भोजन की समस्या पर दो दृष्टिकोणों से विचार किया। एक दृष्टिकोण अनिवार्यता का था और दूसरा संकल्प का । भगवान् ने असम्भव तत्व का प्रतिपादन नहीं किया।
वनस्पति जीवन की न्यूनतम अनिवार्यता है। मांसाहारी लोग वनस्पति खाते हैं पर शाकाहारी लोग मांस नहीं खाते। मांसाहार वनस्पति की भांति न्यूनतम अनिवार्यता नहीं है। उनके पीछे संकल्प की प्रेरणा है। भगवान् की अहिंसा का पहला सूत्र है - अनिवार्य हिंसा को नहीं छोड़ सको तो संकल्पी हिंसा को अवश्य छोड़ो। इसी सूत्र के आधार पर १. सूयगडो, २।६।५२-५५
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