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क्रान्ति का सिंहनाद / १४३
और लता - दोनों जगत् के साथ तदात्म हो जाते हैं।
मनुष्य की तदात्मता भी ऐसी ही है। उसके चिन्तन-पुष्प में भाषा की अभिव्यंजना नहीं होती तो जगत् तदात्म से शन्य होकर सम्पर्क से शून्य हो जाता है।
भाषा सम्पर्क का सर्वाधिक सशक्त माध्यम है। मन को मन से पकड़ने वाले लोग बहुत कम होते हैं। संकेत की शक्ति सीमित है। मनुष्य बोलकर अपनी बात दूसरों तक पहुंचाता है। भाषा का प्रयोजन ही है अपने भीतर के जगत् को दूसरे के भीतरी जगत् से मिला देना। भाषा एक उपयोगिता है। अपने शैशव में उपयोगिता केवल उपयोगिता होती है। यौवन की दहलीज पर पैर रखते ही वह अलंकार बन जाती है। प्राण-शक्ति प्रखर होती है, सौन्दर्य सहज होता है, तब अलंकार की अपेक्षा नहीं होती। प्राण की ज्योति मन्द होने लगती है तब अलंकार की आकांक्षा प्रबल होना चाहती है । युग ऐसा आया कि भाषा भी अलंकार बन गई। जो सम्पर्क-सूत्र थी, वह बड़प्पन का मानदंड बन गई। पंडित लोग उस संस्कृत में बोलते और लिखते थे जो जनता की भाषा नहीं थी, जनता के लिए अगम्य थी। परिणाम यह हुआ कि दो वर्ग बन गए - एक पंडित की भाषा बोलने वालों का और दूसरा जनता की भाषा बोलने वालों का । पंडितों की भाषा असाधारण हो गई और जनता की भाषा साधारण मानी जाने लगी।
महावीर का लक्ष्य था - सबको जगाना। सबको जगाने के लिए जरूरी था सबके साथ संपर्क साधना । पंडिताई की भाषा में ऐसा होना संभव नहीं था। इसलिए भगवान् ने जन-भाषा को सम्पर्क का माध्यम बनाया।
प्राकृत का अर्थ है - प्रकृति की भाषा, जनता की भाषा । भगवान् जनता की भाषा में बोले और जनता के लिए बोले इसलिए वे जनता के हो गए। उनका संदेश बालकों, स्त्रियों, मंदमतियों और मूों तक पहुंचा। उन सबको उससे आलोक मिला।
महावीर इश्वरीय संदेश लेकर नहीं आए थे। उनका संदेश अपनी साधना से प्राप्त अनुभवों का संदेश था। इसलिए उसे जनता की भाषा में रखने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं थी। उस समय कुछ पंडित जनता को ईश्वरीय संदेश देने की घोषणा कर रहे थे। ईश्वरीय सन्देश भला जनता की भाषा में कैसे हो सकता है? वह उस भाषा में होना चाहिए जिसे जनता न समझ सके। यदि उसे जनता समझ ले तो वह एक वर्ग की धरोहर कैसे बन जाए? महावीर ने उस एकाधिकार को भंग कर दिया। दर्शन के महान् सत्य जनता की भाषा में प्रस्तुत हुए। धर्म सर्व-सुलभ हो गया । स्त्री और शूद्र नहीं पढ़ सकते - इस आदेश द्वारा स्त्री और शूद्रों को धर्म-ग्रंथ पढ़ने से वंचित किया जा रहा था। महावीर के उदार दृष्टिकोण से उन्हें धर्मग्रन्थ पढ़ने का पुनः अधिकार मिल गया।
'भाषा का आग्रह हमें कठिनाई से नहीं उबार सकता'- महावीर का यह स्वर १. उत्तरण्झयणाणि, ६।१०:न चित्ता तायए भासा ।
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