________________
१४२/ श्रमण महावीर
सताना नहीं है, अनशन करना नहीं है। उसका अर्थ है - आसन-प्रयोग से शरीर और मन की शक्तियों का विकास करना।
शरीर को सताना और सुख देना - इन दोनों से परे था भगवान् महावीर का मार्ग। उस समय कुछ दार्शनिक कहते थे - जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है । दुःख का बीज सुख का और सुख का बीज दुःख का पौधा उत्पन्न नहीं कर सकता। शरीर को दुःख देने से सुख कैसे उत्पन्न होगा? __कुछ दार्शनिकों का मत इसके विपरीत था। वे कहते थे - वर्तमान मे शरीर को दुःख देंगे तो अगले जन्म में सुख मिलेगा। सुख के लिए पहले कष्ट सहना होता है। जवानी में कष्ट सहकर पैसा कमाने वाला बुढ़ापे में सुख से खाता है।
महावीर ने इन दोनों मतों को स्वीकार भी नहीं किया और अस्वीकार भी नहीं किया। वे किसी मत को एकांगी दृष्टि से स्वीकार या अस्वीकार नहीं करते थे। उन्होंने सुख और दुःख का समन्वय साध लिया।
भगवान् ने बताया – 'मैं कार्य-कारण के सिद्धांत को स्वीकार करता हूं । सुख का कारण सुख होना चाहिए। प्रश्न है - सुख क्या है? उत्तर होगा - जो अच्छा लगे वह सुख और जो बुरा लगे वह दु:ख।'
महावीर ने कहा१. जो लोग इसलिए भूखे रहते हैं कि अगले जीवन में भरपेट भोजन मिलेगा।
२. जो लोग इसलिए घर को छोड़ते हैं कि अगले जीवन में भरा-पूरा परिवार मिलेगा।
३. जो लोग इसलिए धन को छोड़ते हैं कि अगले जीवन में राजसी वैभव मिलेगा। ४. जो लोग इसलिए ब्रह्मचारी बनते हैं कि अगले जीवन में अप्सराएं मिलेगी।
५. जो लोग इसलिए सब कुछ छोड़ते है कि अगले जीवन में यह सब कुछ हजार गुना बढ़िया और लाख गुना अधिक मिलेगा।
-वे सब लोग शरीर, इन्द्रिय और मन को सताने की दोहरी मूर्खता कर रहे हैं। यह संताप है, साधना नहीं है।
जो लोग इन सबको इसलिए छोड़ते हैं कि जो अपना नहीं है उसे छोड़ना ही सुख है। यह साधना है, संताप नहीं है । वस्तुओं को छोड़ना उसे अच्छा लगता है, इसलिए वह सुख है। उन्हें छोड़ने पर कष्ट झेलना अच्छा लगता है, इसलिए वह भी सुख है। इसे आप मान सकते हैं कि सुख से सुख उत्पन्न होता है या दुःख से सुख उत्पन्न होता है। ६. जनता की भाषा जनता के लिए
लता का प्राण पुष्प और पुष्प का प्राण परिमल है । परिमल की अभिव्यंजना से पुष्प १. भगवई,८।२९६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org